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मोक्षशास्त्र
२-जहाँ सत् और असत्के भेदका अज्ञान होता है वहाँ नासमझ पूर्वक जीव जैसा अपनेको ठीक लगता है वैसा पागल पुरुषकी भांति अथवा शराब पीये हुए मनुष्यकी भाँति मिथ्या कल्पनाएँ किया ही करता है। इस लिये यह समझाया है कि सुखके सच्चे अभिलाषी जीवको सच्ची समझ पूर्वक मिथ्या कल्पनाओंका नाश करना चाहिए ।
(४) पहिले से तीस तकके सूत्रोमे मोक्षमार्ग और सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानका स्वरूप समझाकर उसे ग्रहण करनेको कहा है, वह उपदेश 'अस्ति' से दिया है, और ३१ वें सूत्रमे मिथ्याज्ञानका स्वरूप बताकर उसका कारण ३२वे सूत्र में देकर मिथ्याज्ञानका नाश करनेका उपदेश दिया है, अर्थात् इस सूत्र में 'नास्ति' से समझाया है । इसप्रकार 'मंस्ति-नास्ति' के द्वारा अर्थात् अनेकांत के द्वारा सम्यक् ज्ञानको प्रगट करके मिथ्याज्ञानकी नास्ति करनेके लिये उपदेश दिया है। (५) सत् = विद्यमान ( वस्तु )
असत्-अविद्यमान ( वस्तु) अविशेषात् इन दोनोंका यथार्थ विवेक न होनेसे ।
यदृच्छ (विपर्यय ) उपलब्धेः = [विपर्यय शब्दकी ३१ वें सूत्रसे अनुवृत्ति चली आई-है ] विपरीत-अपनी मनमानी इच्छानुसार कल्पनाएं-होनेसे वह मिथ्याज्ञान है।
उन्मत्त्वत्-मदिरा पीये हुए मनुष्यकी भाँति ।
विपर्यय-विपरीतता; वह तीन प्रकारकी है-५-कारणविपरीतता, २-स्वरूपविपरीतता, ३-भेदाभेदविपरीतता।
कारणविपरीतता-मूलकारणको न पहिचाने और अन्यथा कारण को माने।
__ स्वरूपविपरीतता-जिसे जानता है उसके मूल वस्तुभूत - स्वरूपको न पहिचाने और अन्यथा स्वरूपको माने ।