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अध्याय १ सूत्र ३२
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भेदाभेद विपरीतता - जिसे वह जानता है उसे 'यह इससे भिन्न है' और 'यह इससे अभिन्न है' - इसप्रकार यथार्थ न पहिचान कर अन्यथा भिन्नत्व - अभिन्नत्वको माने सो भेदाभेदविपरीतता है ।
( १ ) इन तीन विपरीतताओंको दूर करनेका उपाय
सच्चे धर्मकी यह परिपाटी है कि पहिले जीव सम्यक्त्व प्रगट करता है, पश्चात् व्रतरूप शुभभाव होते है । और सम्यक्त्व स्व और परका श्रद्धान होनेपर होता है, तथा वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग ( अध्यात्म शास्त्रो ) का अभ्यास करनेसे होता है, इसलिये पहिले जीवको द्रव्यानुयोगके अनुसार श्रद्धा करके सम्यग्दृष्टि होना चाहिये, और फिर स्वयं चरणानुयोगके अनुसार सच्चे व्रतादि धारण करके व्रती होना चाहिए ।
इसप्रकार मुख्यतासे तो नीचली दशामे ही द्रव्यानुयोग कार्यकारी है । यथार्थ अभ्यासके परिणामस्वरूपमे विपरीतताके दूर होने पर निम्नप्रकार यथार्थतया मानता है
१ – एक द्रव्य, उसके गुण या पर्याय दूसरे द्रव्य, उसके गुरण या पर्याय में कुछ भी नही कर सकते । प्रत्येक द्रव्य अपने अपने कारणसे अपनी पर्याय धारण करता है | विकारी अवस्थाके समय परद्रव्य निमित्तरूप अर्थात् उपस्थित तो होता है किन्तु वह किसी अन्यद्रव्यमे विक्रिया ( कुछ भी ) नही कर सकता । प्रत्येक द्रव्यमे अगुरुलघुत्व नामक गुरण है इसलिये यह द्रव्य श्रन्यरूप नही होता, एक गुरण दूसरेरूप नही होता और एक पर्याय दूसरेरूप नही होती । एक द्रव्यके गुरण या पर्याय उस द्रव्यसे पृथक् नही हो सकते । इसप्रकार जो अपने क्षेत्रसे अलग नही हो सकते और पर द्रव्यमे नही जा सकते तत्र फिर वे उसका क्या कर सकते हैं ? कुछ भी नही । एक द्रव्य, गुरण या पर्याय दूसरे द्रव्यकी पर्यायमे कारण नही होते, इसीप्रकार वे दूसरे का कार्य भी नही होते, ऐसी अकारणकार्यत्वशक्ति प्रत्येक द्रव्य विद्यमान है । इसप्रकार समझ लेने पर कारणविपरीतता दूर हो जाती है । २- प्रत्येक द्रव्य स्वतत्र है । जीव द्रव्य चेतनागुरण स्वरूप है, पुद्गल - द्रव्य स्पर्श, रस, गंध, और वर्ण स्वरूप है, जबतक जीव ऐसी विपरीत पकड़
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