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मोक्षशास्त्र
पकड़े रहता है कि 'मैं परका कुछ कर सकता हूँ और पर मेरा कुछ कर सकता है तथा शुभ विकल्पसे लाभ होता है' तबतक उसकी अज्ञानरूप पर्याय बनी रहती है । जब जीव यथार्थको समझता है अर्थात् सत्को सम
ता है तब यथार्थ मान्यता पूर्वक उसे सच्चा ज्ञान होता है । उसके परिणाम स्वरूप क्रमशः शुद्धता बढकर सम्पूर्ण वीतरागता प्रगट होती है । अन्य चार द्रव्य (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, और काल ) अरूपी हैं, उनकी कभी अशुद्ध अवस्था नही होती, इसप्रकार समझ लेने पर स्वरूप विपरीतता दूर हो जाती है ।
३---परद्रव्य, जडकर्म और शरीरसे जीव त्रिकाल भिन्न है, जब वे एक क्षेत्रावगाह सम्बन्धसे रहते है तब भी जीवके साथ एक नही हो सकते, एक द्रव्यके द्रव्य-क्षेत्र-काल- भाव दूसरे द्रव्यमे नास्तिरूप हैं; क्योंकि दूसरे द्रव्यसे वह द्रव्य चारो प्रकारसे भिन्न है । प्रत्येक द्रव्य स्वयं अपने गुरणसे अभिन्न है । क्योकि उससे वह द्रव्य कभी पृथक् नही हो सकता । इसप्रकार समझ लेने पर भेदाभेदविपरीतता दूर हो जाती है ।
सत् -- त्रिकाल टिकनेवाला, सत्यार्थ, परमार्थ, भूतार्थ, निश्चय, शुद्ध, यह सव एकार्थवाचक शब्द हैं । जीवका ज्ञायकभाव त्रैकालिक अखण्ड है; इसलिये वह सत्, सत्यार्थ, परमार्थ, भूतार्थ, निश्चय और शुद्ध है । इस दृष्टिको द्रव्यदृष्टि, वस्तुदृष्टि, शिवहष्टि, तत्त्वदृष्टि और कल्याणकारी दृष्टि भी कहते है ।
व्यसत्— क्षणिक, अभूतार्थं, अपरमार्थ, व्यवहार, भेद, पर्याय, भंग, अविद्यमान; जीवमे होनेवाला विकारभाव असत् है क्योकि वह क्षणिक है और टालने पर टाला जा सकता है ।
जीव अनादिकाल से इस असत् विकारी भाव पर दृष्टि रख रहा है इसलिये उसे पर्यायबुद्धि, व्यवहारविमूढ़, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि मोही और मूढ़ भी कहा जाता है, श्रज्ञानी जीव इस असत् क्षणिक भावको अपना मान रहा है, अर्थात् वह असत्को सत् मान रहा है; इसलिये इस भेदको जानकर जो श्रसत्को गोरा करके सत् स्वरूपपर भार देकर अपने ज्ञायक स्व