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अध्याय १ सूत्र ३२
१०७ भावकी ओर उन्मुख होता है वह मिथ्याज्ञानको दूर करके सम्यग्ज्ञान प्रगट करता है। उसकी उन्मत्तता दूर हो जाती है।
विपर्यय-भी दो प्रकारका है, सहज और आहार्य ।
(१) सहज-जो स्वतः अपनी भूलसे अर्थात् परोपदेशके बिना विपरीतता उत्पन्न होती है।
(२) आहार्य-दूसरेके उपदेशसे ग्रहण की गई विपरीतता यह श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा होनेवाले कुमतिज्ञान पूर्वक ग्रहण किया गया कुश्रुतज्ञान है।
शंका-दया धर्मके जाननेवाले जीवोंके भले ही आत्माकी पहिचान न हो तथापि उन्हे दया धर्मकी श्रद्धा तो होती ही है, तब फिर उनके ज्ञान को अज्ञान ( मिथ्याज्ञान ) कैसे माना जा सकता है ?
समाधान—दया धर्मके ज्ञाताप्रोमे भी आप्त, पागम, और पदार्थ (नव तत्त्वों) की यथार्थ श्रद्धासे रहित जो जीव हैं उनके दयाधर्म आदिमे यथार्थ श्रद्धा होनेका विरोध है, इसलिये उनका ज्ञान अज्ञान ही है । ज्ञानका जो कार्य होना चाहिए वह न हो तो वहाँ ज्ञानको अज्ञान माननेका व्यवहार लोकमे भी प्रसिद्ध है, क्योकि पुत्रका कार्य न करनेवाले पुत्रको भी लोकमे कुपुत्र कहनेका व्यवहार देखा जाता है।
शंका-ज्ञानका कार्य क्या है ?
समाधान-जाने हुए पदार्थकी श्रद्धा करना ज्ञानका कार्य है। ऐसे ज्ञानका कार्य मिथ्यादृष्टि जीवमे नही होता इसलिये उसके ज्ञानको अज्ञान कहा है । [ श्री धवला पुस्तक ५, पृष्ठ २२४ ]
विपर्ययमे सशय और अनध्यवसायका समावेश हो जाता है, यह ३१ वे सूत्रको टीकामे कहा है, इसी सम्बन्धमे यहाँ कुछ बताया जाता है
१-कुछ लोगोंको यह सशय होता है कि धर्म या अधर्म कुछ होगा या नही ?