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________________ अध्याय ६ सूत्र ७ लोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिंतनमनुप्रेक्षाः॥७॥ ६७१ अर्थ – [ अनित्याशरणसंसारकत्वान्यत्वाशुंच्या लवसंवर निर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचितनं ] अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, "अन्यत्व, अशुचि, श्रास्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म इन बारहके स्वरूपका बारंबार चितवन करना सो [ अनुप्रेक्षाः ] अनुप्रेक्षा है । टीका १- कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अनित्यादि चितवन से शरीरादिको बुरा जान - हितकारी न जान उससे उदास होना सो अनुप्रेक्षा है, किंतु यह ठीक नही है; यह तो जैसे पहले कोई मित्र था तब उसके प्रति राग था और बादमे उसके अवगुण देखकर उदासीन हुआ उसी प्रकार पहले शरीरादिकसे राग था किन्तु बादमे उसके अनित्यत्व आदि अवगुण देखकर उदासीन हुआ, इसकी यह उदासीनता द्वेषरूप है, यह यथार्थ अनुप्रेक्षा नही है | ( मो० प्र० ) प्रश्न- - तो यथार्थ अनुप्रेक्षाका स्वरूप क्या है ? उत्तर- जैसा स्व का - आत्माका और शरीरादिकका स्वभाव है वैसा पहचान कर भ्रम छोड़ना और इस शरीरादिकको भला जानकर राग न करना तथा बुरा जानकर द्वेष न करना; ऐसी यथार्थ उदासीनता के लिये अनित्यत्व आदिका यथार्थ चितवन करना सो ही वास्तविक अनुप्रेक्षा है । उसमे जितनी वीतरागता बढती है उतना संवर है और जो राग रहता है वह बंधका कारण है । यह अनुप्रेक्षा सम्यग्दृष्टिके ही होती है क्योंकि यहीं सम्यक् अनुप्रेक्षा बतलाई है । अनुप्रेक्षाका अर्थ है कि आत्माको अनुसरण कर इसे देखना । २- जैसे अग्निसे तपाया गया लोहेका पिंड तन्मय ( अग्निमय ) हो जाता है उसी प्रकार जब ग्रात्मा क्षमादिकमें तन्मय हो जाता है तब क्रोधादिक उत्पन्न नही होते । उस स्वरूपको प्राप्त करनेके लिये स्व सन्मुखतापूर्वक अनित्य आदि बारह भावनाप्रोका वारम्बार चितवन करना जरूरी है । वे बारह भावनाये आचार्यदेवने इस सूत्रमे वतलाई हैं । 2
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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