________________
अध्याय १ परिशिष्ट ५
२०१
स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कल, मन, मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, श्रादिकर्म, अहः कर्म, सबलोकों, सब जीवों और सब भावोंको सम्यक् प्रकारसे युगपत् जानते है, देखते है और विहार करते है ॥ ८२ ॥
ज्ञान-धर्मके माहात्म्योंका नाम भग है, वह जिनके है भगवान् कहलाते है । उत्पन्न हुए ज्ञानके द्वारा देखना जिसका स्वभाव है उसे उत्पन्न ज्ञानदर्शी कहते है । स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञान दर्शन स्वभाववाले भगवान् सब लोकको जानते है |
शंका- ज्ञानको उत्पत्ति स्वयं कैसे हो सकती है ?
समाधान --- नहीं, क्योंकि कार्य और कारणका एकाधिकरण होनेसे इनमे कोई भेद नही है ।
[ देवादि लोकमें जीवकी गति, आगति तथा चयन और उपपादको भी सर्वज्ञ भगवान जानते हैं; - ]
सौधर्मादिक देव, और भवनवासी असुर कहलाते है । यहाँ देवासुर वचन देशामर्शक है इसलिये इससे ज्योतिषी, व्यन्तर और तिर्यंचोका भी ग्रहण करना चाहिये । देवलोक और असुरलोकके साथ मनुष्यलोककी आगतिको जानते हैं । अन्य गतिसे इच्छिन गतिमे आना आगति है । इच्छित गतिसे अन्य गतिमे जाना गति है । सौधर्मादिक देवोका अपनी सम्पदा से विरह होना चयन है । विवक्षित गतिसे अन्य गतिमें उत्पन्न होना उपपाद है । जीवोंके विग्रहके साथ तथा विना विग्रहके आगमन, गमन चयन और उपपादको जानते हैं;
[ पुगलोंके आगमन, गमन, चयन और उपपाद संबंधी ]
तथा पुद्गलोंके आगमन, गमन, चयन और उपपादको जानते हैं; पुद्गलोंमे विवक्षित पर्यायका नाश होना चयन है । अन्य पर्यायरूपसे परिमना उपपाद है ।
२६