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________________ १९८ मोक्षशास्त्र देवगुरुधर्मके श्रद्धानमें तुच्छ वुद्धिको ऐसा भासित होता है कि अरहंतदेवादिको ही मानना चाहिए और अन्यको नहीं मानना चाहिये, इतना ही सम्यक्त्व है, किन्तु वहाँ उसे जीव-अजीवके बंध-मोक्षके कारणकार्यका स्वरूप भासित नही होता और उससे मोक्षमार्गरूप प्रयोजनकी सिद्धि नहीं होती है, और जीवादिका श्रद्धान हुए विना मात्र इसी श्रद्धानमें संतुष्ट होकर अपनेको सम्यक्ष्टि माने वा एक कुदेवादिके प्रति द्वेष तो रक्खे किंतु अन्य रागादि छोड़नेका उद्यम न करे, ऐसा भ्रम उत्पन्न होता है। और स्व-परके श्रद्धानमें तुच्छ बुद्धिवालेको ऐसा भासित होता है कि-एक स्व-परको जानना ही कार्यकारी है और उसीसे सम्यक्त्व होता है। किन्तु उसमें आश्रवादिका स्वरूप भासित नही होता और उससे मोक्षमार्गरूप प्रयोजनकी सिद्धि भी नही होती। और आश्रवादिका श्रद्धान हुए बिना मात्र इतना ही जानने में संतुष्ट होकर अपनेको सम्यक्दृष्टि मानकर स्वच्छन्दी हो जाता है किन्तु रागादिके छोड़नेका उद्यम नही करता; ऐसा भ्रम उत्पन्न होता है। तथा आत्मश्रद्धान लक्षणमें तुच्छबुद्धि वालेको ऐसा भासित होता है कि-एक आत्माका ही विचार कार्यकारी है और उसीसे सम्यक्त्व होता • है, किन्तु वहाँ जीव-अजीवादिके विशेष तथा आश्रवादिका स्वरूप भासित नही होता और इसलिये मोक्षमार्गरूप प्रयोजनकी सिद्धि भी नहीं होती, और जीवादिके विशेषोंका तथा आश्रवादिके स्वरूपका श्रद्धान हुए बिना मात्र इतने ही विचारसे अपनेको सम्यग्दृष्टि मानकर स्वच्छन्दी होकर रागादिको छोड़नेका उद्यम नही करता; ऐसा भ्रम उत्पन्न होता है। ऐसा जानकर इन लक्षणोको मुख्य नही किया । और तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणमें--जीव-अजीवादि पाश्रवादिका श्रद्धान हुआ वहाँ यदि उन सबका स्वरूप ठीक ठीक भासित हो तो मोक्षमार्गरूप प्रयोजनकी सिद्धि हो। और इस श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनके होनेपर भी स्वयं संतुष्ट नही होता परन्तु आश्रवादिका श्रद्धान होनेसे रागादिको
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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