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मध्याय १ परिशिष्ट ४
१६६ छोड़कर मोक्षका उद्यम करता है । इसप्रकार उसे भ्रम उत्पन्न नहीं होता। इसीलिये तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणको मुख्य किया है।
अथवा तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणमें देवादिका श्रद्धान, स्व-परका श्रद्धान, तथा आत्मश्रद्धान गर्मित होता है, और वह तुच्छबुद्धिवाले को भी भासित होता है किन्तु अन्य लक्षणोंमें तत्त्वार्थश्रद्धान गर्भित है यह विशेष बुद्धिवान्को ही भासित होता है, तुच्छवुद्धिवालेको नहीं। इसलिये तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणको मुख्य किया है। तथा मिथ्यादृष्टि को यह आभासमात्र होता है; वहाँ तत्त्वार्थोंका विचार विपरीताभिनिवेशको दूर करने में शीघ्र कारणरूप होता है किन्तु अन्य लक्षण शीघ्र कारणरूप नहीं होते या विपरीताभिनिवेशके भी कारण हो जाते हैं, इसलिये वहाँ सर्व प्रकारसे प्रसिद्ध जानकर विपरीताभिनिवेशरहित जीवादितत्त्वार्थोंका श्रद्धान ही सम्यक्त्वका लक्षण है ऐसा निर्देश किया है। ऐसा लक्षण जिस आत्माके स्वभावमें हो उसीको सम्यग्दृष्टि समझना चाहिए ।