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मोक्षशास्त्र चाहिये । और यहाँ जो सम्यक्त्वका लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान कहा है सो वह तो भावनिक्षेपसे कहा है, अर्थात् गुणसहित सच्चा तत्त्वार्थश्रद्धान मिथ्याष्टिके कभी भी नहीं होता । और जो आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थश्रद्धान कहा है वहाँ भी यही अर्थ समझना चाहिये, क्योंकि जिसे जीव अजीवादि का सच्चा श्रद्धान होता है उसे आत्मज्ञान क्यों न होगा ? अवश्य होगा। इसप्रकार किसी भी मिथ्यादृष्टिको सच्चा तत्त्वार्थश्रद्धान सर्वथा नही होता, इसलिये इस लक्षरणमें अतिव्याप्ति दोष नहीं आता !
असंभव दोषका परिहार और जो यह 'तत्त्वार्थश्रद्धान' लक्षण कहा है सो असंभवदूपणयुक्त भी नही है । क्योकि सम्यक्त्वका प्रतिपक्षी मिथ्यात्व ही है और उसका लक्षण इससे विपरीततायुक्त है।
इसप्रकार अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोषोसे रहित तत्त्वार्थश्रद्धान सभी सम्यग्दृष्टियोके होता है और किसी भी मिथ्यादृष्टिके नही होता, इसलिये सम्यग्दर्शनका यथार्थ लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान ही है।
विशेष स्पष्टीकरण (१) प्रश्न-यहाँ सात तत्त्वोके श्रद्धानका नियम कहा है किन्तु वह ठीक नहीं बैठता, क्योंकि कही कही परसे भिन्न अपने श्रद्धानको भी (आत्मश्रद्धानको भी) सम्यक्त्व कहा है। श्री समयसारमें 'एकत्वे नियतस्य' इत्यादि कलशमें यह कहा है कि-'आत्माका परद्रव्यसे भिन्न अवलोकन ही नियमतः सम्यग्दर्शन है, इसलिये नवतत्त्वकी संततिको छोड़कर हमे तो यह एक आत्मा ही प्राप्त हो।' और कही कही एक आत्माके निश्चयको हो सम्यक्त्व कहा है । श्री पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें 'दर्शनमात्मविनिश्चितिः' ऐसा पद है, उसका भी यही अर्थ है, इसलिये जीव-अजीवका ही या केवल जीव का ही श्रद्धान होनेपर भी सम्यक्त्व होता है । यदि सात तत्त्वोके श्रद्धानका ही नियम होता तो ऐसा क्यों लिखते ?