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अध्याय १ परिशिष्ट ४
१६१ उचर-परसे भिन्न जो अपना श्रद्धान होता है वह पाश्रवादिके श्रद्धानसे रहित होता है या सहित होता है ? यदि रहित होता है तो मोक्ष के श्रद्धानके बिना वह किस प्रयोजनके लिये ऐसा उपाय करता है ? संवरनिर्जराके श्रद्धानके बिना रागादि रहित होकर अपने स्वरूपमें उपयोग लगानेका उद्यम क्यों करता है ? पाश्रव-बंधके श्रद्धानके बिना वह पूर्वावस्था को क्यों छोडता है ? क्योंकि आश्रवादिके श्रद्धानसे रहित स्व-परका श्रद्धान करना सम्भवित नहीं है; और यदि आस्रवादिके श्रद्धानसे युक्त है तो वहाँ स्वयं सातों तत्त्वोंके श्रद्धानका नियम हुआ। और जहाँ केवल आत्माका निश्चय है वहाँ भी परका पररूपश्रद्धान हुए बिना आत्माका श्रद्धान नहीं होता । इसलिये अजीवका श्रद्धान होते ही जीवका श्रद्धान होता है, और पहिले कहे अनुसार आश्रवादिका श्रद्धान भी वहां अवश्य होता है; इसलिये यहाँ भी सातों तत्त्वोंके ही श्रद्धानका नियम समझना चाहिये।
दूसरे, आश्रवादिके श्रद्धान बिना स्व-परका श्रद्धान अथवा केवल आत्माका श्रद्धान सच्चा नही होता क्योंकि आत्मद्रव्य शुद्ध-अशुद्ध पर्याय सहित है इसलिये जैसे तंतुके अवलोकनके बिना पटका अवलोकन नहीं होता उसी प्रकार शुद्ध-अशुद्ध पर्यायको पहिले पहिचाने बिना आत्मद्रव्यका श्रद्धान भी नहीं हो सकता, और शुद्ध-अशुद्ध अवस्थाकी पहिचान आस्रवादिकी पहिचानसे होती है। आस्रवादिके श्रद्धानके बिना स्व-परका श्रद्धान या केवल आत्माका श्रद्धान कार्यकारी नही है क्योंकि ऐसा श्रद्धान करो या न करो, जो स्वयं है सो स्वयं ही है और जो पर है सो पर ही है । और आसवादिका श्रद्धान हो तो आस्रव-बंधका अभाव करके संवर-निर्जरारूप उपाय से वह मोक्षपदको प्राप्त हो, जो स्व-परका श्रद्धान कराया जाता है वह भी इसी प्रयोजनके लिये कराया जाता है। इसलिये आस्रवादिके श्रद्धानसे युक्त स्व-परका जानना या स्व का जानना कार्यकारी है।
(२) प्रश्न-यदि ऐसा है तो शास्त्रों में जो स्व-परके श्रद्धानको या केवल आत्माके श्रद्धानको ही सम्यक्त्व कहा है और कार्यकारी कहा है और