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श्रध्याय १ परिशिष्ट ४
१८६ मुझे मुक्तावस्था प्राप्त हुई है ।' पहिले ज्ञान की हीनतासे जीवादिके थोड़े भेदोंको जानता था और अब केवलज्ञान होने पर उसके सर्व भेदोंको जानता है, किन्तु मूलभूत जीवादिके स्वरूपका श्रद्धान जैसा छद्मस्थको होता है वैसा ही केवलीको भी होता है । यद्यपि केवली-सिद्ध भगवान् अन्य पदार्थों को भी प्रतीति सहित जानते है तथापि वे पदार्थ प्रयोजनभूत नहीं है इसलिये सम्यक्त्वगुणमें सात तत्त्वोंका श्रद्धान ही ग्रहण किया है । केवली-सिद्ध भगवान रागादिरूप परिणमित नही होते और ससारावस्थाको नही चाहते सो यह श्रद्धानका ही वल समझना चाहिए ।
प्रश्न- — जब कि सम्यग्दर्शनको मोक्षमार्ग कहा है तब फिर उसका सद्भाव मोक्षमे कैसे हो सकता है ?
उत्तर—कोई कारण ऐसे भी होते है जो कार्यके सिद्ध होने पर भी नष्ट नही होते । जैसे किसी वृक्षकी एक शाखासे अनेक शाखायुक्त अवस्था हुई हो, तो उसके होने पर भी वह एक शाखा नष्ट नही होती; इसीप्रकार किसी आत्माको सम्यक्त्वगुरणके द्वारा अनेक गुरणयुक्त मोक्ष अवस्था प्रगट हुई किंतु उसके होने पर भी सम्यक्त्वगुण नष्ट नही होता । इसप्रकार केवली सिद्धभगवान् के भी तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण होता ही है । इसलिये वहाँ अव्याप्ति दोष नहीं आता ।
अतिव्याप्ति दोष का परिहार
प्रश्न- शास्त्रो मे यह निरूपण किया गया है कि मिथ्यादृष्टिके भी तत्त्वार्थ श्रद्धानलक्षण होता है, और श्री प्रवचनसारमें श्रात्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थश्रद्धान अकार्यकारी कहा है । इसलिए सम्यक्त्वका जो लक्षण 'तत्त्वार्थश्रद्धान' कहा है उसमे अतिव्याप्ति दोष आता है ।
उत्तर - मिथ्यादृष्टिको जो तत्त्वार्थश्रद्धान बताया है वह मात्र नामनिक्षेपसे है । जिसमें तत्त्वश्रद्धानका गुरण तो नही है किंतु व्यवहारमे जिसका नाम तत्त्वश्रद्धान कहते हैं वह मिथ्यादृष्टिके होता है, अथवा आगमद्रव्यनिक्षेपसे होता है, - अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धानके प्रतिपादक शास्त्रोंका अभ्यास है किन्तु उसके स्वरूपका निश्चय करनेमे उपयोग नही लगाता ऐसा जानना