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अध्याय ६ उपसंहार
७४६ बचेगा या नही ? इत्यादि बातें भगवान स्वयं पहलेसे निश्चय करके मुनि को कहते हैं या आहार लाने वाले मुनि स्वय निश्चय करते है ? ये भी विचारणीय प्रश्न है । पुनश्च नग्न मुनिके पास पात्र तो होता नहीं इसी कारण वह आहार लानेके लिये निरुपयोगी हैं, और इसीलिये भगवान स्वयं मुनि दशामे नग्न थे तथापि उनके वीतराग होनेके बाद उनके गणधरादिकको पात्र रखने वाले अर्थात् परिग्रहधारी मानना पडेगा और यह भी मानना पडेगा कि भगवानने उस पात्रधारी मुनिको आहार लानेकी आज्ञा की। किन्तु यह सब असंगत है-ठीक नहीं है।
१२-पुनश्च यदि भगवान स्वयं अशन-पान करते हों तो भगवान को ध्यान मुद्रा दूर हो जायगी क्योकि अध्यान मुद्राके अलावा पात्रमे रहे हुये आहारको देखनेका, उसके टुकडे करने, कोर लेने, दांतसे चाबने, गले में उतारने आदिकी क्रियाये नही हो सकती। अब यदि भगवानके अध्यानमुद्रा या उपरोक्त क्रियायें स्वीकार करें तो वह प्रमाददशा होती है । पुनश्च पाठवें सूत्रमे ऐसा उपदेश देते हैं कि परीषहें सहन करनी चाहिये और भगवान स्वयं ही वैसा नही कर सकते अर्थात भगवान अशक्य कार्योका उपदेश देते है, ऐसा अर्थ करने पर भगवानको मिथ्या उपदेशी कहना पड़ेगा।
१३-४६ वें सूत्रमे निग्रंथोंके भेद बताये हैं उनमे 'बकुश' नामक एक भेद बतलाया है। उनके धर्म प्रभावनाके रागसे शरीर तथा शास्त्र, कमंडल, पीछी पर लगे हुये मैलको दूर करनेका राग हो जाता है । इस परसे कोई यह कहना चाहते है कि-उस 'बकुश' मुनिके वस्त्र होनेमे बाधा नही, परन्तु उनका यह कथन न्याय विरुद्ध है, ऐसा छ8 अव्यायके तेरहवें सूत्रकी टीकामें बतलाया है । पुनश्च मुनिका स्वरूप नहीं समझनेवाले ऐसा भी कहना चाहते हैं कि यदि मुनिको शरीरकी रक्षाके लिये अथवा सयमकी रक्षाके लिये वस्त्र हो तो भी वे क्षपक श्रेणी माडकर केवलज्ञान प्रगट कर सकते हैं । यह बात भी मिथ्या है। इस अध्यायके ४७ वे सूत्रकी टोकामे संयमके लब्धिस्थानोका स्वरूप दिया है इस परसे मालूम होगा कि वकुश मुनि तीसरी बारके संयमलब्धिस्थानमे रुक जाता है और कषाय-रहित