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मोक्षशास्त्र १०-छ8 सूत्र में धर्मके दश भेद बतलाये है। उसमें दिया गया उत्तम विशेषरण यह बतलाता है कि धर्मके भेद सम्यग्दर्शनपूर्वक ही हो सकते है। इसके बाद सातवें सूत्र में अनुप्रेक्षाका स्वरूप और ८ वें सूत्रसे १७ वें सूत्र तक परीपहजयका स्वरूप कहा है। शरीर और दूसरी बाह्य वस्तुओंकी जिस अवस्थाको लोग प्रतिकूल मानते है उसे यहाँ परीपह कहा गया है । आठवे सूत्र में 'परिषोढव्या' शब्दका प्रयोग करके उन परोपहोंको सहन करनेका उपदेश दिया है। निश्चयसे परीपह क्या है और उपचारसे परीषह किसे कहते है-यह नही समझनेवाले जीव १०-११ सूत्रका प्राश्रय लेकर ( कुतर्क द्वारा ) ऐसा मानते हैं कि- केवली भगवानके क्षुधा और तृषा ( भूख और प्यास ) की व्याधिरूप परीपह होती है, और छद्मस्थ रागी जीवोंकी तरह केवली भगवान भी भूख और प्यासकी व्याधिको दूर करनेके लिए खान-पान ग्रहण करते हैं और रागी जीवोंकी तरह भगवान भी अतृप्त रहते हैं परन्तु उनकी यह मान्यता मिथ्या है। सातवें गुणस्थानसे ही आहारसंज्ञा नहीं होती ( गोमट्टसार जीव कांड गाथा १३६ की बड़ी टीका पृष्ठ ३५१-३५२ ) तथापि जो लोग केवली भगवानके खान-पान मानते है वे भगवानको आहार संज्ञासे भी दूर हुये नही मानते ( देखो सूत्र १०-११ की टीका)।
११-जब भगवान मुनि अवस्थामे थे तव तो करपात्री होनेसे स्वयं ही आहारके लिये निकलते और जो दाता श्रावक भक्तिपूर्वक पडगाहन करते हैं तो वे खडे रहकर करपात्रमे आहार लेते । परन्तु जो ऐसा मानते है कि वीतरागी होनेके बाद भी असह्य वेदनाके कारण भगवान आहार लेते हैं, उन्हे ऐसा मानना पडता है या पड़ेगा कि 'भगवानके कोई गणधर या मुनि आहार लाकर देते है, वे स्वयं नही जाते ।' अब देखो कि छमस्थ अवस्थामे तो भगवान आहारके लिये किसीसे याचना नही करते और अब वीतराग होनेके बाद आहार लानेके लिये शिष्योसे याचना करें, यह बड़े आश्चर्य की बात है। पुनश्च भगवानको माहार-पानीका दाता तो वह आहार लानेवाला मुनि ही हुआ। भगवान कितना आहार लेगे, क्या क्या लेगे, अपन जो कुछ ले जायेगे वह सब भगवान लेंगे, उनमेसे कुछ