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मोक्षशास्त्र अध्याय नवमाँ भूमिका
१ --- इस अध्यायमें संवर और निर्जरातत्त्वका वर्णन है । यह मोक्षशास्त्र है इसलिये सबसे पहले मोक्षका उपाय बतलाया है कि जो समयग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रकी एकता है सो मोक्षमार्ग है । फिर सम्यग्दर्शनका लक्षरण तत्त्वार्थं श्रद्धान कहा और सात तत्त्वोके नाम बतलाये; इसके बाद अनुक्रमसे इन तत्त्वोका वर्णन किया है; इनमेसे जीव, प्रजीव, आस्रव श्रोर बंध इन चार तत्त्वों का वर्णन इस आठवें अध्याय तक किया । अब इस नवमे श्रध्यायमे संवर और निर्जरातत्त्व इन दोनों तत्त्वों का वर्णन है और इसके बाद अन्तिम अध्यायमे मोक्षतत्त्वका वर्णन करके प्राचार्यदेवने यह शास्त्र पूर्ण किया है ।
२- अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके यथार्थं संवर और निर्जरातत्त्व कभी प्रगट नही हुए; इसीलिये उसके यह संसाररूप विकारी भाव वना रहा है और प्रति समय अनन्त दुःख पाता है । इसका मूल कारण मिथ्यात्व ही है । धर्मका प्रारम्भ सवरसे होता है और सम्यग्दर्शन ही प्रथम संवर है; इसीलिये धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है । सवरका अर्थ जीवके विकारीभावको रोकना है । सम्यक् दर्शन प्रगट करने पर मिथ्यात्व श्रादि भाव रुकता है इसीलिये सबसे पहले मिथ्यात्व भावका संवर होता है ।
३ – संवरका स्वरूप
(१) 'संवर' अध्यायमे बतलाये हुये भावको रोके तब जीवमे
शब्दका अर्थ 'रोकना' होता है । छट्ट - सातवें आस्रवको रोकना सो संवर है । जव जीव श्रास्रव किसी भावकी उत्पत्ति तो होनी ही चाहिये ।
जिस भावका उत्पाद होने पर श्रास्रव भाव रुके वह संवरभाव है । संवरका अर्थ विचारनेसे इसमे निम्न भाव मालूम होते हैं: