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जानकर बहुत किया है; किन्तु उसका फल संसार ही है। शुद्धनयका पक्ष तो कभी आया नहीं और उसका उपदेश भी विरल है, वह कहीं कहीं पाया जाता है। इसलिये उपकारी श्री गुरुने शुद्धनयके ग्रहणका फल मोक्ष जानकर उसका उपदेश प्रधानतासे दिया है, कि-"शुद्धनय भूतार्थ है, सत्यार्थ है; इसका आश्रय लेनेसे सम्य
दृष्टि हो सकता है। इसे जाने बिना जब तक जीव व्यवहार में मग्न है तब तक आत्माका ज्ञान-श्रद्धानरूप निश्चय सम्यकत्व नहीं हो सकता"। ऐसा आशय समझना चाहिये ॥११॥
१५-कोई ऐसा मानते हैं कि प्रथम व्यवहारनय प्रगट हो और बादमे व्यवहारनय के प्राश्रयसे निश्चयनय प्रगट होता है अथवा प्रथम व्यवहार धर्म करते करते निश्चय धर्म प्रगट होता है तो वह मान्यता योग्य नही है, कारण कि निश्चय-व्यवहारका स्वरूप तो परस्पर विरुद्ध है ( देखो मो० मा० प्रकाशक-देहली-पृष्ठ ३६६ )
(१) निश्चय सम्यग्ज्ञानके बिना जीवने अनन्तबार मुनिव्रत पालन किये परन्तु उस मुनिव्रतके पालनको निमित्त कारण नहीं कहा गया, कारण कि सत्यार्थ कार्य प्रगट हुए विना साधक (-निमित्त) किसको कहना?
प्रश्न-"जो द्रव्यलिंगी मुनि मोक्षके अथि गृहस्थपनों छोड़ि तपवरणादि करे हैं, तहाँ पुरुषार्थ तो किया, कार्य सिद्ध न भया, तातें पुरुपार्थ किये तो कछू सिद्धि नाहीं। ताका समाधान~अन्यथा पुरुषार्थ करि फल चाहे, तो कैसे सिद्धि होय? तपश्चरणादिक व्यवहार साधन विष अनुरागी होय प्रवत्त, ताका फल शास्त्र विर्षे तो शुभवन्ध कह्या है, अर यहु तिसत मोक्ष चाहे है, तो कैसे सिद्धि होय ! अतः यहु तो भ्रम है।"
मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ४५६, देखो। (२) मिथ्यादृष्टिकी दशामें कोई भी जीवको कभी भी 'सम्यग्