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समयसारजी शास्त्र मूल गाथा टोका गाथा ६९, ७०, ७१, ७२, ७४, ६२, गाथा ३८ तथा टीका, गाथा २१०, २१४, २७६-२७७-२६७ गाथा टीका सहित पढ़ना।
१४५ से १५१, १८१ से १८३ पृष्ठ २६५ (-परस्पर अत्यन्त स्वरूप विपरीतता होनेसे )
३०६-७, (शुभभाव व्यवहार चारित्र निश्चयसे विषकुम्भ ) २९७ गाथामें श्री जयसेनाचार्यकी टीकामें भी स्पष्ट खुलासा है।
श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक ( देहली सस्ती ग्रंथमाला ) पृष्ठ, नं० ४, ३२७-२८-३२-३३-३४-३७-४०-४१-४२-४३-४४, ३६०-६१, ३६५ से ३७१ ( ३७१ ३७५-७६-७७ पत्रमे खास बात है ) ३७२, ३७३-७५-७६-७७-६७, ४०७-८, ४५७, ४७१-७२ ।
व्यवहारनयके स्वरूपकी मर्यादा १४-समयसार गाथा ८ की टीकामे कहा है कि "व्यवहारनय म्लेच्छ भाषाके स्थान पर होनेसे परमार्थका कहनेवाला है इसलिये, व्यवहारनय स्थापित करने योग्य है परन्तु xx वह व्यवहारनय अनुसरण करने
योग्य नहीं है।" फिर गाथा. ११ की टोकामे कहा कि व्यवहारनय सब ही • अभूतार्थ है इसलिये वह अविद्यमान, असत्य अर्थको, अभूत अर्थको प्रगट करता है; शुद्धनय एक ही भूतार्थ होनेसे सत्य, भूत अर्थको प्रगट करता है. xx बादमें कहा है कि xx इसलिये जो शुद्धनयका आश्रय लेते हैं वे ही सम्यक् अवलोकन करनेसे सम्यक्दृष्टि हैं, दूसरे सम्यग्दृष्टि नही हैं । इसलिये कर्मोसे भिन्न आत्माके देखनेवालोको व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नही है।"
गाथा ११ के भावार्थमे पं० जी श्री जयचन्दजीने कहा है कि
प्राणियोंको भेदरूप व्यवहारका पक्ष तो अनादिकालसे ही है, और इसका उपदेश भी बहुधा सर्व प्राणी परस्पर करते हैं । और जिनवाणीमें व्यवहारनयका उपदेश शुद्धनयका हस्तावलम्बन ( सहायक )