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श्रुतज्ञान' हो सकता नहीं, जिसको 'सम्यक् श्रुतज्ञान' प्रगट हुमा है उसे ही 'नय' होते हैं, कारण कि 'नय' ज्ञान वह सम्यक् श्रुतज्ञानका अंश है अंशी विना अंश कैसा ? "सम्यक् श्रुतज्ञान" ( भावश्रुतज्ञान ) होते ही दोनू नय एकी साथ होय हैं, प्रथम और पीछे ऐसा नही है इसप्रकार सच्चे जैनधर्मी मानते हैं ।
(३) वस्तुस्वरूप तो ऐसा है कि चतुर्थ गुणस्थानसे ही निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट होता है और उसी समय सम्यक् श्रुतज्ञान प्रगट होता है, सम्यक् श्रुतज्ञानमे दोनू नय अंशोंका सद्भाव एकी साथ है आगे पीछे नय होते नही । निजात्माके आश्रयसे जब भावश्रुतज्ञान प्रगट हुआ तब अपना ज्ञायकस्वभाव तथा उत्पन्न हुई जो शुद्ध दशा उसे आत्माके साथ अभेद गिनना वह निश्चयनयका विषय, और जो अपनी पर्यायमे अशुद्धता तथा अल्पता शेष है वह व्यवहारनयका विषय है । इसप्रकार दोनो नय एक ही साथ जीवको होते हैं। इसलिये प्रथम व्यवहारनय अथवा व्यवहार धर्म और बादमे निश्चयनय अथवा निश्चय धर्म ऐसा वस्तुस्वरूप नहीं है ।
१६-प्रश्न-निश्चयनय और व्यवहारनय समकक्ष है ऐसा मानना ठीक है ?
उत्तर-नही, दोनों नयको समकक्षी माननेवाले एक संप्रदाय है, वे दोनोको समकक्षी और दोनोंके आश्रयसे धर्म होता है ऐसा निरूपण
* उस सप्रदायकी व्यवहारनयके सम्बन्धमें क्या श्रद्धा है ? देखो-(१) श्री मेघविजयजी गणी कृत युक्तिप्रबोध नाटक ( वह गणीजी कविवर श्री बनारसी दासके समकालीन थे) उनने व्यवहारनयके आलम्बन द्वारा आत्महित होना बताकर श्री समयसार नाटक तथा दिगम्बर जैनमतके सिद्धान्तोका खण्डन किया है तथा (२) जो प्रायः १६ वी शतिमें हुये-प्रब भी उनके सम्प्रदायमें बहुत मान्य है वह श्री यशोविजयजी उपाध्याय कृत गुर्जर साहित्य सग्रहमें पृष्ठ नं० २०७, २१९, २२२, ५८४, ८५ में दि० जैनधर्मके खास सिद्धान्तोका उग्र, (-सख्त ) भाषा द्वारा खण्डन किया है, वे बड़े ग्रन्थकार थे-विद्वान थे उनने दिगम्बर प्राचार्योका यह मत बतलाया है कि: