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२४ करते हैं परन्तु श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव तो स्पष्टरूपसे फरमाते हैं कि भूतार्थके (निश्चयके ) आश्रयसे ही हमेशा धर्म होता है, पराश्रयसे (-व्यवहारसे ) कभी भी अंशमात्र भी सच्चा धर्म (-हित ) नही होता। हाँ दोनों नयोंका तथा उसके विषयोंका ज्ञान अवश्य करना चाहिये। गुण स्थान अनुसार जैसे २ भेद पाते हैं वह जानना प्रयोजनवान है परन्तु दोनों समान हैसमकक्ष हैं ऐसा कभी नहीं है, कारण कि दोनों नयोंके विषयमे और फलमें परस्पर विरोध है इसलिये व्यवहारनयके आश्रयसे कभी भी धर्मकी उत्पत्ति, वृद्धि और टिकना होता ही नही ऐसा दृढ़ श्रद्धान करना चाहिये, समयसारजीमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव कृत ११ वी गाथाको सच्चा जनधर्मका प्राण कहा है इसलिये उस गाथा और टीकाका मनन करना चाहिये, गाथा निम्नोक्त है ।
व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्ध नय भूतार्थ है;
भूतार्थके आश्रित जीव सुदृष्टि निश्चय होत है, ( काव्यमें )
१७--प्रश्न-व्यवहार मोक्षमार्गको मोक्षका परम्परा कारण कहा है वहाँ क्या प्रयोजन है ?
द्वारा अपनी शुद्धता बढ़ाकर जैसे जैसे शुद्धता द्वारा गुणस्थानमें आगे
(१) निश्चयनय होने पर ही व्यवहारनय हो सकता है-व्यवहारनय प्रथम
नही हो सकता। (२) प्रथम व्यवहारनय तथा व्यवहार धर्म और पीछे निश्चयनय और निश्चय
धर्म ऐसा नहीं है। (३) निश्चयनय और व्यवहारनय दोनो समकक्ष नही है-परस्पर विरुद्ध है
उनके विषय और फलमें विपरीतता है। (४) निमित्तका प्रभाव नहीं पडता, ऐसा दिगम्बर प्राचार्योंका मत है इन मूल बातोका उस सम्प्रदायने उन जोरोसे खण्डन किया है-इसलिये जिज्ञासुप्रोसे प्रार्थना है कि उसमें कौन मत सच्चा है, उसका निर्णय सच्ची श्रद्धाके लिये करें-जो बटुन प्रयोजन भूत है-जरूरी बात है।