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अध्याय ५ सूत्र ३२
श्राया' इसमें पहला कथन अर्पित दूसरा अनर्पित है ।
(१६) 'जीव जड़कर्मके उदयसे ग्यारहवें गुरणस्थानसे गिरा' ऐसा कहनेसे यह कथन भी आगया कि 'जीव अपने पुरुषार्थकी कमजोरी से गिरा, जड़ कर्म परद्रव्य है और ११ वे गुणस्थानमें तो मोह कर्मका उदय ही नही है । वास्तवमें ( - सचमुच ) तो कर्मोदयसे जीव गिरता नही है, किन्तु जिस समय अपने पुरुषार्थं की कमजोरी से गिरा - तब मोहकर्म के उदयसे गिरा ऐसा आरोप ( - उपचार - व्यवहार ) आया' इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा अनर्पित है ।
(१७) 'जीव पंचेन्द्रिय है' ऐसा कहने से यह कथन भी आगया कि 'जीव चेतनात्मक है जड़ इन्द्रियात्मक नही है, पाँचों इन्द्रियां जड़ हैं मात्र उसे उनका संयोग है ।' इसमें पहला कथन अर्पित दूसरा अनर्पित है । (१८) 'निगोदका जीव कर्मका उदय मंद होनेपर ऊँचा चढ़ता है' यह कहने से उसमें यह कथन आगया कि 'निगोदिया जीव स्वयं अपने पुरुपार्थके द्वारा मंद कषाय करनेपर चढ़ता है, कर्म परद्रव्य है इसलिये कर्मके कारणसे जीव ऊँचा नही चढ़ा, (-अपनी योग्यता से चढ़ा है ) पहला कथन अर्पित और दूसरा अर्नार्पित है ।
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(१६) 'कर्मके उदयसे जीव असंयमी होता है क्योंकि चारित्रमोह के उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है' ऐसा कहनेसे यह कथन आगया कि 'जीव अपने पुरुषार्थके दोषके कारण अपने चारित्र गुरणके विकारको नहीं टालता और असंयमरूप परिणमता है इसलिये वह असंयमी होता है, यद्यपि उस समय चारित्र मोहके कर्म भी झड़ जाते हैं तो भी जीवके विकारका निमित्त पाकर नवीन कर्म स्वयं बांधता है, इसलिये पुराने चारित्र मोहकर्मपर उदयका आरोप आता है' इसमे पहला कथन अर्पित और दूसरा श्रनर्पित है ।
(२०) 'कर्मके उदयसे जीव ऊर्ध्वलोक मध्यलोक और अधोलोक में जाता है क्योंकि श्रानुपूर्वी कर्मके उदयके विना उसकी अनुपपत्ति है' ऐसा कहनेसे उसमे यह कथन भी आगया कि 'जीवको क्रियावती शक्तिको उस समयकी वैसी योग्यता है इसलिये जीव ऊर्ध्व लोकमे अधोलोकमें श्रीर तियं