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मोक्षशास्त्र
कहने से यह भी आगया कि 'कोई पर द्रव्यका भोक्ता नहीं हो सकता ।' इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा श्रनर्पित है ।
(१०) 'कर्मका विपाक कर्ममें आ सकता है' ऐसा कहनेसे यह कथन भी आ गया कि 'कर्मका विपाक जीवमें नही आ सकता, इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा अनर्पित है ।
(११) 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको एकता मोक्षमार्ग है' ऐसा कहने पर यह कथन भी आ गया कि 'पुण्य पाप, श्रास्रव बंध ये मोक्षमार्ग नहीं है' इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा अनर्पित है ।
(१२) 'शरीर परद्रव्य है' ऐसा कहने पर यह कथन भी आ गया कि 'जीव शरीरकी कोई क्रिया नहीं कर सकता, उसे हला- चला नही सकता, उसकी संभाल नहीं रख सकता, उसका कुछ कर नहीं सकता वैसे ही शरीरकी क्रियासे जीवको राग, द्वेष, मोह, सुख, दुःख वगैरह नहीं हो सकता ।' इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा अनर्पित है ।
(१३) 'निमित्त पर द्रव्य है' ऐसा कहने पर उसमें यह कथन भी आगया, कि 'निमित्त पर द्रव्यका कुछ कर नही सकता, उसे सुधार या बिगाड़ नहीं सकता, सिर्फ वह अनुकूल संयोगरूपसे होता है' इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा अनर्पित है ।
(१४) 'घीका घड़ा' कहनेसे उसमें यह 'घड़ा घीमय नही किन्तु मिट्टीमय है, घीका घड़ा कथन है' इसमे पहला कथन श्रर्पित और दूसरा
कथन भी आगया कि है यह तो मात्र व्यवहारा अनर्पित है ।
(१५) 'मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जीव मिथ्यादृष्टि होता है । इस कथनसे यह भी आगया कि 'जीव उस समयकी अपनी विपरीत श्रद्धा को लेकर मिथ्यादृष्टि होता है, वास्तव में मिथ्यात्व कर्मके उदयके कारण जीव, मिथ्यादृष्टि नही होता, मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जीव मिथ्यादृष्टि होता हैयह तो उपचारमात्र व्यवहार कथन है, वास्तवमे तो जीव जब स्वयं मिथ्याश्रद्धारूप परिरणमा तब मिथ्यात्व मोहनीय कर्मके जो रजकरण उस समय उदयरूप हुये, उन पर निर्जराका आरोप न आकर विपाक उदयका आरोप