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अध्याय ३ सूत्र ६
३०७ नरकायुका बंध किया हो तो वह पहिले नरकमें जाता है, किंतु वहाँ उसकी अवस्था पैरा ७ में बताये गये अनुसार होती है।
६. पहिले से चौथे नरक तक से निकलकर मनुष्य हुए जीवोमेसे योग्य जीव उसी भवमें मोक्ष प्राप्त कर लेते है। पाचवें नरकसे निकलकर मनुष्य हुए पात्रजीव सच्चा मुनित्व धारण कर सकते हैं, छ8 नरकसे निकलकर मनुष्य हुए पात्रजीव पांचवें गुणस्थान तक जा सकते हैं और सातवें नरकसे निकले हुए जीव क्रूर तिर्यंचगतिमे ही जाते हैं। यह भेद जीवोके पुरुषार्थकी तारतम्यताके कारण होते है।
१०. प्रश्न-सम्यग्दृष्टि जीवोका अभिप्राय नरकमे जानेका नही होता फिर भी यदि कोई सम्यग्दृष्टि नरकमे पहुँच जाय तो वहाँ तो जड़ कर्म का जोर है और जड़कर्म जीवको नरकमे ले जाता है इसलिये जाना पड़ता है, यह बात ठीक है या नही ?
उत्तर-यह बात ठीक नही है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ नही कर सकता, इसलिये जड़कर्म जीवको नरकमें ले जाता हो ऐसा नही होता। सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि कोई जीव नरकमे जाना नही चाहता तो भी जो जो जीव नरकमे जाने लायक होते है वे वे जीव अपनी क्रियावती शक्तिके परिणमनके कारण वहाँ जाते हैं, उस समय कार्मण और तेजसशरीर भी उनकी अपनी ( पुद्गल परमाणुओंकी ) क्रियावती शक्तिके परिणमनके कारण उस क्षेत्रमे जीवके साथ जाते हैं।
और अभिप्राय तो श्रद्धागुणकी पर्याय है और इच्छा चारित्रगुणकी विकारी पर्याय है । द्रव्यका हरएक गुण स्वतंत्र और असहाय है । इसलिये जीव की इच्छा अथवा अभिप्राय चाहे जैसा हो फिर भी जीवकी क्रियावती शक्तिका परिणमन उससे (अभिप्राय और इच्छासे) स्वतंत्ररूपसे और उस समयकी उस पर्यायके धर्मानुसार होता है । वह क्रियावती शक्ति ऐसी है कि-जीवको किस क्षेत्रमे ले जाना चाहिये इसका ज्ञान होने की उसे आवश्यकता नह है। नरकमें जानेवाले वे जीव उनकी आयुपर्यंत उस क्षेत्रके संयोग