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अध्याय ६ सूत्र १८-१९ ३. निर्जराके कारणों सम्बन्धी होनेवाली भूलें और उनका निराकरण
(१) कितने ही जीव अनशनादि तपसे निर्जरा मानते हैं किन्तु वह तो बाह्य तप है । अब बाद के १९-२० वें सूत्र में बारह प्रकारके तप कहे हैं वे सब बाह्य तप है, किंतु वे एक दूसरेकी अपेक्षासे बाह्य अभ्यंतर हैं, इसीलिये उनके बाह्य और अभ्यंतर ऐसे दो भेद कहे है। अकेले बाह्य तप करनेसे निर्जरा नही होती। यदि ऐसा हो कि अधिक उपवासादि करनेसे अधिक निर्जरा हो और थोड़े करनेसे थोड़ी हो तो निर्जराका कारण उपवासादिक ही ठहरें किन्तु ऐसा नियम नही है । जो इच्छाका निरोध है सो तप है; इसीलिये स्वानुभव' की एकाग्रता बढ़नेसे शुभाशुभ इच्छा दूर होनी है, उसे तप कहते हैं।
(२) यहाँ अनशनादिकको तथा प्रायश्चित्तादिकको तप कहा है इसका कारण यह है कि-यदि जीव अनशनादि तथा प्रायश्चित्तादिरूप प्रवर्ते और रागको दूर करे तो वीतरागभावरूप सत्य तप पुष्ट किया जा सकता है, इसीलिये उन अनशनादि तथा प्रायश्चित्तादिको उपचारसे तप कहा है। यदि कोई जीव वीतराग भावरूप सत्य तपको तो न जाने और उन अनशनादिकको ही तप जानकर संग्रह करे तो वह संसारमे ही भ्रमण करता है।
(३) इतना खास समझ लेना कि-निश्चय धर्म तो वीतराग भाव है, अन्य अनेक प्रकारके जो भेद कहे जाते है वे भेद बाह्य निमित्तको अपेक्षासे उपचारसे कहे हैं, इसके व्यवहार मात्र धर्म संज्ञा जाननी। जो जीव इस रहस्यको नही जानता उसके निर्जरातत्त्वकी यथार्थ श्रद्धा नही है। ( मो० प्र०)
तप निर्जराके कारण हैं, इसीलिये उनका वर्णन करते है। उनमें पहले तपके भेद कहते है
वाह्य तपके ६ भेद अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्त
शय्यासनकायक्लेशाः बाह्य तपः ॥ १६ ॥