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अध्याय ५ सूत्र १
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कहा जा सकता, इसलिए कथनमें मुख्य और गोरापनेकी अपेक्षा होती है, इसप्रकार ३२ वें सूत्रमें बताया है । इसतरह बहुतसे उपयोगी सिद्धांत इस अध्याय में लिए गए हैं ।
इस अध्यायमें 'सद्द्रव्यलक्षण', 'उत्पादव्यय श्रीव्ययुक्तं सत्,' 'गुण पर्यंयवद्द्द्रव्यं,' 'अर्पितानर्पित सिद्धेः' और 'तद्भाव परिणामः' ये पाँच ( २६, ३०, ३८, ३२ और ४२ ) सूत्र वस्तु स्वरूपके नीवरूप हैं - विश्वधर्म के नीवरूप हैं । यह अध्याय सिद्ध करता है कि सर्वज्ञके बिना दूसरा कोई, जीव और जीवका सत्य स्वरूप नही कह सकता । जीव और दूसरे पाँच अजीव (पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ) द्रव्यो का स्वरूप जैसा इस शास्त्रमे निरूपित है वैसा ही दि० जैन शास्त्रोमे बताया है । और वह अद्वितीय है । इससे विरुद्ध मान्यता यदि जगतके किसी भी जीव की हो तो वह असत्य है- मिथ्या है । इसलिए जिज्ञासुओको यथार्थ समझकर सत्यस्वरूपको ग्रहण करना और झूठी मान्यता तथा अज्ञान छोड़ना चाहिए |
धर्मके नाम पर संसारमे जैनके अतिरिक्त दूसरी भी अनेक मान्यतायें प्रचलित हैं, किन्तु उनमे वस्तुका यथार्थ कथन नही मिलता, वे जीव अजीव श्रादि तत्त्वोंका स्वरूप अन्य प्रकारसे कहते हैं; आकाश और काल का जैसा स्वरूप वे कहते हैं वह स्थूल और अन्यथा है और धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकायके स्वरूप से तो वे बिल्कुल अज्ञात हैं । इस उपरोक्त कथनसे सिद्ध होता है कि वस्तुके सत्य स्वरूपसे विरुद्ध चलती हुई वे सभी मान्यताएँ मिथ्या हैं, तत्त्वसे विरुद्ध हैं ।
अजीव तत्वका वर्णन
अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥ १॥
अर्थ:- [ धर्माधर्माकाश पुद्गलाः ] धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश और पुद्गल में चार [ प्रजीवकायाः ] अजीव तथा बहु प्रदेशी है ।