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मोक्षशास्त्र अध्याय पाँचवाँ
भूमिका
इस शास्त्रके प्रारंभ करते ही आचार्य भगवानने प्रथम अध्यायके पहले ही सूत्रमें बताया है कि सच्चे सुखका एक ही मार्ग है और वह मार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता है। इसके बाद यह बताया है कि जो तत्त्वार्थका श्रद्धान है सो सम्यग्दर्शन है। फिर सात तत्त्व बताये हैं। उन तत्त्वोंमें पहला जीव तत्त्व है; उसका निरूपण पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे अध्यायमें किया है।
दूसरा अजीव तत्त्व है-उसका ज्ञान इस पांचवें अध्यायमें कराया गया है । पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और कालमे पाँच अजीव द्रव्य है, ऐसा निरूपण करनेके बाद उनकी पहचान करनेके लिये उनके खास लक्षण तथा उनका क्षेत्र बताया है। जीव सहित छह द्रव्य है यह कहकर द्रव्य, गुरण, पर्याय, नित्य, अवस्थित तथा अनेकांत आदिका स्वरूप बतलाया है।
यह मान्यता भ्रमपूर्ण है कि ईश्वर इस जगत्का कर्ता है । जगत्के सभी द्रव्य स्व की अपेक्षा सत् हैं, उन्हें किसीने नहीं बनाया, ऐसा बतानेके लिए 'सत् द्रव्य लक्षरण' द्रव्यका लक्षण सत् है इसप्रकार २६ वें सूत्रमें कहा है । जगत्के सभी पदार्थ की क्षण-क्षणमे स्वमें ही स्व की अवस्था स्वसे बदलती रहती है, इसी प्रकार सत्का स्वरूप निरूपण करनेके लिये ३० वाँ सूत्र कहा है । प्रत्येक वस्तु द्रव्यकी अपेक्षासे नित्य और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है, ऐसा निरूपण करनेके लिए गुण-पर्यायवाला द्रव्य है ऐसा द्रव्यका दूसरा लक्षरण ३८ वें सूत्र में कहा है । प्रत्येक द्रव्य स्वयं स्वसे परिणमन करता है, अन्य तो निमित्तमात्र व्यवहार कारण है, इसलिये एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ नहीं कर सकता, ऐसा प्रतिपादन करनेके लिये ४२ वां सूत्र कहा है । वस्तुका स्वरूप अनेकांतात्मक है, किन्तु वह एक साथ नही