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मोक्षशास्त्र
लिये वह उदय कहलाता है, और सोपक्रम आयुवालेके पहिले अमुक समय तो उपरोक्त प्रकारसे ही निर्जरा होती है तब उसे उदय कहते हैं, परन्तु अन्तिम अंतमुहूर्तमें सभी निषेक एक साथ निर्जरित हो जाते हैं इसलिये उसे उदीरणा कहते हैं वास्तवमें किसी को आयु बढ़ती या घटती नही है परन्तु निरुपक्रम आयुका सोपक्रम आयुसे भेद बतानेके लिये सोपक्रम आयुवाले जीवकी 'अकाल मृत्यु हुई ऐसा व्यवहारसे कहा जाता है।
२-उत्तम अर्थात् उत्कृष्ट; चरमदेह उत्कृष्ट होती है, क्योंकि जो जो जीव केवलज्ञान पाते हैं उनका शरीर केवलज्ञान प्रगट होने पर परमौदारिक हो जाता है । जिस शरीरसे जीवको केवलज्ञान प्राप्त नही होता वह शरीर चरम नहीं होता, और परमौदारिक भी नहीं होता। मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीवका शरीरके साथ निमित्त-नैमित्तिक संबंध केवलज्ञान प्राप्त होने पर कैसा होता है यह बतानेके लिये इस सूत्रमें चरम और उत्तमा, ऐसे दो विशेषण दिये गये हैं, जब केवलज्ञान प्रगट होता है तब उस शरीर को 'चरम' संज्ञा प्राप्त होती है, और वह परमौदारिकरूप हो जाता है इसलिये उसे 'उत्तम' संज्ञा प्राप्त होती है; परन्तु वज्रवृषभनाराचसंहनन तथा समचतुरस्रसंस्थानके कारण शरीरको 'उत्तम' संज्ञा नहीं दी जाती।
३-सोपक्रम-कदलीघात अर्थात् वर्तमानके लिये अपवर्तन होनेवाली आयुवालेके बाह्यमें विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्राघात, श्वासावरोध, अग्नि, जल, सर्प, अजीर्णभोजन, वजूपात, शूली, हिंसकजीव, तीनभूख या प्यास प्रादि कोई निमित्त होते हैं । ( कदलीघातके अर्थके लिये देखो अ०४ सूत्र २६ की टीका )
४-कुछ अंतःकृत केवली ऐसे होते हैं कि जिनका शरीर उपसर्गसे विदीर्ण हो जाता है परन्तु उनकी प्रायु अपवर्तनरहित है। चरमदेहधारी, गुरुदत्त, पांडव इत्यादिको उपसर्ग हुआ था परन्तु उनको आयु अपवर्तनरहित थी।
५-'उत्तम' शब्दका अर्थ त्रेसठ शलाका पुरुष, अथवा कामदेवादि ऋद्धियुक्त पुरुष ऐसा करना ठीक नहीं है । क्योंकि सुभौमचक्रवर्ती- अंतिम