________________
६२१
अध्याय ८ सूत्र १ ही अविरतिका पूर्ण अभाव हो जाय और यथार्थ महाव्रत तथा मुनिदशा प्रगट करे ऐसे जीव तो अल्प और विरले ही होते हैं।
११. प्रमादका स्वरूप उत्तम क्षमादि दश धर्मोमे उत्साह न रखना, इसे सर्वज्ञ देवने प्रमाद कहा है । जिसके मिथ्यात्व और अविरति हो उसके प्रमाद तो होता ही है। परन्तु मिथ्यात्व और अविरति दूर होनेके बाद प्रमाद तत्क्षण ही दूर होजाय ऐसा नियम नही है, इसीलिये सूत्रमें अविरतिके बाद प्रमाद कहा है, यह अविरतिसे भिन्न है। सम्यग्दर्शन प्रगट होते ही प्रमाद दूर करके अप्रमत्तदशा प्रगट करनेवाला जीव कोई विरला ही होता है।
१२. कषायका स्वरूप कषायके २५ भेद हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, इन प्रत्येकके अनंतानुबंधी प्रादि चार भेद, इस तरह १६ तथा हास्यादिक ९ नोकषाय, ये सब कषाय है और इन सबमे आत्महिंसा करनेकी सामर्थ्य है । मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद ये तीन अथवा अविरति और प्रमाद ये दो अथवा जहां प्रमाद हो वहां कषाय तो अवश्य ही होती है, किन्तु ये तीनों दूर हो जाने पर भी कषाय हो सकती है।।
१३. योग का स्वरूप योगका स्वरूप छट्टो अध्यायके पहले सूत्रकी टीकामें आगया है। ( देखो पृष्ठ ५०२ ) मिथ्यादृष्टि से लेकर तेरहवे गुणस्थान पर्यंत योग रहता है। ११-१२ और १३ वें गुणस्थानमे मिथ्यात्वादि चारका अभाव हो जाता है तथापि योगका सद्भाव रहता है।
__ केवलज्ञानी गमनादि क्रिया रहित हुए हो तो भी उनके अधिक योग है और दो इन्द्रियादि जीव गमनादि क्रिया करते हैं तो भी उनके अल्प योग होता है, इससे सिद्ध होता है कि योग यह वन्धका गौण कारण है, यह तो प्रकृति और प्रदेशबन्धका कारण है । वन्धका मुख्य कारण तो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय है और इन चारमे भी सर्वोत्कृष्ट कारण तो मिथ्यात्व ही है मिथ्यात्वको दूर किये विना अविरति आदि