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मोक्षशास्त्र लक्षण कहा है । इसप्रकार भिन्न भिन्न प्रयोजनोंकी मुख्यतासे भिन्न भिन्न लक्षण कहे हैं।
(७) प्रश्न-यह जो भिन्न २ चार लक्षण कहे हैं उनमेंसे इस जीवको कौनसे लक्षणको अंगीकार करना चाहिये ?
उत्तर-जहाँ पुरुषार्थके द्वारा सम्यग्दर्शनके प्रगट होने पर विपरीताभिनिवेशका अभाव होता है वहाँ यह चारों लक्षण एक साथ होते हैं तथा विचार अपेक्षासे मुख्यतया तत्त्वार्थोंका विचार करता है या स्व-परका भेद विज्ञान करता है, या प्रात्मस्वरूपको ही सँभालता है अथवा देवादिके स्वरूपका विचार करता है । इसप्रकार ज्ञानमें नाना प्रकारके विचार होते है किन्तु श्रद्धानमें सर्वत्र परस्पर सापेक्षता होती है। जैसे तत्त्वविचार करता है तो भेद विज्ञानादिके अभिप्राय सहित करता है, इसीप्रकार अन्यत्र
भी परस्पर सापेक्षता है। इसलिये सम्यक्दृष्टिके श्रद्धानमें तो चारों 'लक्षणोका अंगीकार है, किन्तु जिसे विपरीताभिनिवेश होता है उसे यह लक्षण आभासमात्र होते है, यथार्थ नहीं होते। वह जिनमतके जीवादि 'तत्त्वोंको मानता है, अन्यके नहीं, तथा उनके नाम, भेदादिको सीखता है। इसप्रकार उसे तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है किन्तु उसके यथार्थभावका श्रद्धान नहीं होता । और वह स्व-परके भिन्नत्वकी बातें करता है तथा वस्त्रादिमें परबुद्धिका चितवन करता है, परन्तु उसे जैसी पर्यायमें अहंबुद्धि है तथा वस्त्रादिमें परबुद्धि है वैसी आत्मामें अहंबुद्धि और शरीरमें परबुद्धि नहीं होती। वह आत्माका जिनवचनानुसार चितवन करता है किन्तु प्रतीतरूपसे 'निजको निजरूप श्रद्धान नहीं करता तथा वह अरहन्तादिके अतिरिक्त अन्य कुदेवादिको नही मानता; किन्तु उनके स्वरूपको यथार्थ पहिचान कर श्रद्धान नहीं करता। इसप्रकार यह लक्षणाभास मिथ्या दृष्टिले होते है। उसमें कोई हो या न हो किन्तु उसे यहाँ भिन्नत्व भी संभवित नहीं है।
दूसरे, इन लक्षणाभासोंमे इतनी विशेषता है कि,-पहिले तो देवादिका श्रद्धान होता है, फिर तत्त्वोंका विचार होता है, पश्चात् स्व-परका चितवन करता है और फिर केवल आत्माका चितवन करता है। यदि इस