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अध्याय १ परिशिष्ट ४
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प्रश्न ६ - यथार्थं तत्त्वार्थ श्रद्धान, स्व-परका श्रद्धान, आत्मश्रद्धान, तथा देव गुरु धर्मका श्रद्धान सम्यक्त्वका लक्षण कहा है और इन सब लक्षणोंकी परस्पर एकता भी बताई है सो वह तो जान लिया, किन्तु इसप्रकार अन्य अन्य प्रकारसे लक्षरण करनेका क्या प्रयोजन है ?
उत्तर- - जो चार लक्षण कहे है उनमे सच्ची दृष्टि पूर्वक कोई एक लक्षण ग्रहण करने पर चारों लक्षणोंका ग्रहण होता है तथापि मुख्य प्रयोजन भिन्न २ समझ कर अन्य अन्य प्रकारसे यह लक्षण कहे हैं ।
१ - जहाँ तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण कहा है वहाँ यह प्रयोजन है कि यदि इन तत्त्वोंको पहिचाने तो वस्तुके यथार्थ स्वरूपका व हिताहित का श्रद्धान करके मोक्षमार्ग मे प्रवृत्ति करे ।
२ -- जहाँ स्व-पर भिन्नताका श्रद्धानरूप लक्षण कहा है वहाँ जिससे तत्त्वार्थश्रद्धानका प्रयोजन सिद्ध हो उस श्रद्धानको मुख्य लक्षरण कहा है, क्योकि जीव अजीवके श्रद्धानका प्रयोजन स्व-परका भिन्न श्रद्धान करना है, और आश्रवादिके श्रद्धानका प्रयोजन रागादि छोड़ना है, अर्थात् स्व-परकी भिन्नताका श्रद्धान होनेपर परद्रव्योंमें रागादि न करनेका श्रद्धान होता है । इसप्रकार तत्त्वार्थश्रद्धानका प्रयोजन स्व-परके भिन्न श्रद्धानसे सिद्ध हुआ जानकर यह लक्षरण कहा है ।
३ -- जहाँ आत्मश्रद्धान लक्षण कहा है वहाँ स्व-परके भिन्नश्रद्धानका प्रयोजन इतना ही है कि -अपनेको श्रपनेरूप जानना । अपनेको अपनेरूप जाननेपर परका भी विकल्प कार्यकारी नही है ऐसे मूलभूत प्रयोजनकी प्रधानता जानकर श्रात्मश्रद्धानको मुख्य लक्षण कहा है । तथा-धर्मकी श्रद्धारूप लक्षण कहा है वहाँ बाह्य साधनकी प्रधानता की है, क्योकि - अरहन्त देवादिका श्रद्धान सच्चे तत्त्वार्थं श्रद्धानका कारण है तथा कुदेवादिका श्रद्धान कल्पित श्रतत्त्वार्थश्रद्धानका कारण है । इस बाह्य कारणकी प्रधानता से कुदेवादिका श्रद्धान छुड़ाकर सुदेवादिका श्रद्धान करानेके लिए देव गुरु धर्मके श्रद्धानको मुख्य
४ - जहाँ देव गुरु