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मोक्षशास्त्र
धर्मं श्रात्माको इष्ट स्थान में ( सम्पूर्ण पवित्र दशा में ) पहुँचाता है, धर्म ही परम रसायन है । धर्म ही चिंतामणि रत्न है, धर्म ही कल्पवृक्ष - कामवेनु है और धर्म ही मित्र है, धर्म ही स्वामी है, धर्म ही वन्धु, हितु, रक्षक और साथ रहनेवाला है, धर्म ही शरण है, धर्म ही धन है, धर्म ही ग्रविनाशी है, धर्म ही सहायक है, और यही धर्मका जिनेश्वर भगवानने उपदेश किया है - इसप्रकार चितवन करना सो धर्म अनुप्रेक्षा है ।
निश्चयनयसे श्रात्मा श्रावकधर्म या मुनिधर्मसे भिन्न है, इसलिये माध्यस्थभाव अर्थात् रागद्वेष रहित निर्मल भावद्वारा शुद्धात्माका चितवन करना सो घर्म भावना है । ( श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत द्वादशानुप्रेक्षा ) ये बारह भेद निमित्तकी अपेक्षासे हैं । धर्म तो वीतरागभावरूप एक ही है, इसमे भेद नही होता । जहाँ राग हो वहाँ भेद होता है ।
४ – ये बारह भावना ही प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना और समाधि है, इसलिये निरन्तर अनुप्रेक्षाका चितवन करना चाहिये । ( भावना और अनुप्रेक्षा ये दोनों एकार्थ वाचक हैं )
५- इन अनुप्रेक्षानोंका चितवन करनेवाले जीव उत्तम क्षमादि धर्म पालते हैं और परीषहोंको जीतते हैं इसीलिये इनका कथन दोनोंके बीचमे किया गया है ||७||
दूसरे सूत्र मे कहे हुए संवरके छह कारणों में से पहले चार कारणोंका वर्णन पूर्ण हुआ । अव पाँचवे कारण परीषह जयका वर्णन करते हैं ।
परीषह सहन करनेका उपदेश
मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिसोढव्याः परीषहाः ॥८॥
अर्थ- [ मार्गाच्यवननिर्जरार्थं ] संवरके मार्गसे और कर्मोकी निर्जराके लिये [ परीषहाः परिसोढव्याः ] सहन करने योग्य हैं ( यह संवरका प्रकरण चल रहा है, कहे गये 'मार्ग' शब्दका अर्थ 'संवरका मार्ग' समझना । )
च्युत न होने बावीस परीषद अतः इस सूत्र में