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प्रध्याय ३ उपसंहार
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स्वयंभूरमणद्वीपके उत्तरार्धकी, स्वयंभूरमणसमुद्रकी और चारों कोनों की रचना कर्मभूमि जैसी कही जाती है; क्योंकि कर्मभूमिमें और वहां विकलत्रय ( दो इन्द्रियसे चार इन्द्रिय ) जीव है, और भोगभूमिमें विकलत्रय जीव नही है । तिर्यक्लोकमे पंचेन्द्रिय तिर्यंच रहते हैं, किंतु जलचर तिर्यंच लवरणसमुद्र, कालोदधिसमुद्र, और स्वयंभूरमरण समुद्रको छोड़फर अन्य समुद्रोंमें नही है ।
स्वयंवरमरणसमुद्रके चारों ओर के कोनेके अतिरिक्त भागको तिर्यक्लोक कहा जाता है ।
उपसंहार
लोकके इन क्षेत्रोंको किसीने बनाये नही है, किन्तु अनादि अनंत है | स्वर्ग-नरक मोर द्वीपसमुद्र श्रादि जो है वे अनादिसे इसोप्रकार हैं, और सदा ऐसे ही रहेगे। जैसे जीवादिक पदार्थ इस लोकमें अनादिनिधन हैं उसी प्रकार यह भी अनादिनिधन समझना चाहिये ।
इसप्रकार यथार्थ श्रद्धानके द्वारा लोकमे सभी पदार्थ अकृत्रिम भिन्न-भिन्न अनादिनिधन समझना चाहिये । जो कुछ कृत्रिम घरबार आदि इंद्रियगम्य वस्तुएं नवीन दिखाई देती हैं वे सब अनादि निघन पुगलद्रव्य की संयोगी पर्यायें हैं । वे पुगल कुछ नये नही बने है । इसलिये यदि जीव निरर्थक भ्रमसे सच्चे झूठेका ही निश्चय न करे तो वह सच्चा स्वरूप नही जान सकता । प्रत्येक जीव अपने श्रद्धानका फल प्राप्त करता है इसलिये योग्य जीवोंको सम्यक् श्रद्धा करनी चाहिये ।
सात नरकभूमियों, बिल, लेश्या, आयु, द्वीप, समुद्र, पर्वत, सरोवर, नदी, मनुष्य-तियंचकी श्रायु इत्यादिका वर्णन करके श्री आचार्यदेवने तीसरा अध्याय पूर्ण किया ।
इसप्रकार तीसरे अध्यायमे अधोलोक और मध्यलोकका वर्णन किया है, अब ऊर्ध्वलोकका वर्णन चौथे अध्यायमें किया जायगा, इस प्रकार श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्र के तीसरे अध्यायकी टीका समाप्त हुई ।
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