________________
४३४
मोक्षशाख अर्थ-[ अपितानर्पितसिद्धः ] प्रधानता और गौणतासे पदार्थों की सिद्धि होती है।
टीका (१) प्रत्येक वस्तु अनेकान्त स्वरूप है यह सिद्धान्त इस सूत्रमें स्याद्वाद द्वारा कहा है। नित्यता और अनित्यता परस्पर विरोधी धर्म हैं, तथापि वे वस्तुको वस्तुपनमें निष्पन्न (सिद्ध ) करनेवाले हैं, इसीलिये वे प्रत्येक द्रव्यमें होते ही है। उनका कथन मुख्य गौणरूपसे होता है, क्योंकि सभी धर्म एक साथ नहीं कहे जा सकते । जिस समय जिस धर्मको सिद्ध करना हो उस समय उसकी मुख्यता ली जाती है । उस मुख्यता-प्रधानता को 'अर्पित' कहा जाता है, और उस समय जिस धर्मको गौण रखा हो उसे अनर्पित कहा जाता है । ज्ञानी पुरुष जानता है कि अनर्पित किया हुआ धर्म यद्यपि उस समय कहने में नहीं आया तो भी वह धर्म रहते ही है।
(२) जिस समय द्रव्यको द्रव्यकी अपेक्षासे नित्य कहा है उसी समय वह पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य है। सिर्फ उस समय 'अनित्यता' कही नहीं गई किन्तु गभित रखी है। इसी प्रकार जब पर्यायकी अपेक्षासे द्रव्यको अनित्य कहा है उसी समय वह द्रव्यकी अपेक्षासे नित्य है सिर्फ उस समय नित्यता कही नही है। क्योंकि दोनों धर्म एक साथ कहे नहीं जा सकते।
(३) अर्पित और अनर्पित के द्वारा अनेकान्त स्वरूप का कथन___ अनेकान्त की व्याख्या निम्न प्रमाण है
"एक वस्तुमें वस्तुत्वको निष्पादक परस्पर विरुद्ध दो शक्तियोंका एक ही साथ प्रकाशित होना सो अनेकान्त है।" जैसे कि जो वस्तु सत् है वही असत् है अर्थात् जो अस्ति है वही नास्ति है, जो एक है वही अनेक है, जो नित्य है वही अनित्य है इत्यादि । ( स० सार सर्व विशुद्धिज्ञानाधिकार पृ० ५६५)
अपित और अनर्पितका स्वरूप समझनेके लिये यहाँ कितने ही