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श्रध्याय १ परिशिष्ट १
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(८) शुद्ध जीवास्तिकायकी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व । [ जयसेनाचार्यकृत टीका - पंचास्तिकाय गाथा १०७ पृष्ठ १७० ]
( ४ )
ज्ञान गुणकी मुख्यतासे निश्चय सम्यग्दर्शनकी व्याख्या (१) विपरीत अभिनिवेशरहित जीवादि तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन का लक्षण है, [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ४७० तथा पुरुषार्थ सिद्धय पाय
श्लोक २२ ]
हैं ।
नोट: यह व्याख्या प्रमाण दृष्टिसे है उसमें प्रस्ति नास्ति दोनों पहलू बताये
(२) 'जीवादिका श्रद्धान सम्यक्त्व है' अर्थात् जीवादि पदार्थोके यथार्थं श्रद्धान स्वरूपमें आत्माका परिणमन सम्यक्त्व है [समयसार गाथा १५५, हिन्दी टीका पृष्ठ २२५, गुजराती पृष्ठ २०१ ]
(३) भूतार्थसे जाने हुए पदार्थोसे शुद्धात्माके पृथक्त्वका सम्यक् अवलोकन । [ जयसेनाचार्यकृत टीका - हिन्दी समयसार पृष्ठ २२६ ]
नोट: -- कालम नं० २ र ३ यह सूचित करते हैं कि जिसे नव पदार्थोंका सम्यग्ज्ञान होता है उसे ही सम्यग्दर्शन होता है । इस प्रकार सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शनका अविनाभावी भाव बतलाता है । यह कथन द्रव्यार्थिक नयसे है ।
(३) पंचाध्यायी भाग दूसरेमे ज्ञानकी अपेक्षासे निश्चयसम्यग्दर्शन की व्याख्या श्लोक १८६ से १८९ में दी गई है, यह कथन पर्यायार्थिकनयसे है । वह निम्नप्रकार कहा गया है:
[ गाथा १८६ ] - 'इसलिये शुद्धतत्त्व कही उन नव तत्त्वोंसे विलक्षरण अर्थान्तर नही है, किन्तु केवल नवतत्त्व सम्बन्धी विकारोको छोड़कर नवतत्त्व ही शुद्ध हैं ।
भावार्थ - इससे सिद्ध होता है कि केवल विकार की उपेक्षा करने से नवतत्त्व ही शुद्ध है, नवतत्त्वोसे कही सर्वथा भिन्न शुद्धत्व नहीं है ।' [ गाथा १८७ ] ' इसलिये सूत्रमे तत्त्वार्थकी श्रद्धा करनेको सम्यग्दर्शन माना गया है, और वह भी जीव-प्रजीवादिरूप नव हैं, xx
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