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अध्याय २ सूत्र १८
२५६ और वह जीवका लक्षण है, इसलिये उपयोगको भावेन्द्रियत्व कहा जा .. सकता है ।
४. उपयोग और लब्धि दोनोंको भावेन्द्रिय इसलिये कहते हैं कि वे द्रव्यपर्याय नही किन्तु गुरणपर्याय हैं, क्षयोपशमहेतुक लब्धि भी एक पर्याय था धर्म है और उपयोग भी एक धर्म है, क्योकि वह आत्माका परिणाम है । वह उपयोग दर्शन और ज्ञानके भेदसे दो प्रकारका है ।
५. धर्म, स्वभाव, भाव, गुरणपर्याय और गुरण शब्द एकार्थं वाचक
हैं ।
६. प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोंका श्रद्धान करने योग्य ज्ञानकी क्षयोपशमलव्धि तो सभी सैनी पंचेन्द्रिय जीवोंके होती है, किन्तु जो जीव पराश्रयकी रुचि छोड़कर परकी ओरसे झुकाव हटाकर, निज (आत्मा) की ओर उपयोगको लगाते हैं उन्हें आत्मज्ञान (सम्यग्ज्ञान) होता है । और जो जीव पर की ओर ही उपयोग लगाये रहते हैं उन्हे मिथ्याज्ञान होता है, और इससे दुःख ही होता है कल्याण नही होता । इस सूत्र का सिद्धांत
जीवको छद्मस्थदशामे ज्ञानका विकास अर्थात् क्षयोपशमहेतुक लब्धि बहुत कुछ हो तथापि वह सब विकासका उपयोग एक साथ नही कर सकता, क्योकि उसका उपयोग रागमिश्रित है इसलिये रागमें अटक जाता है, इसलिये ज्ञानका लब्धिरूप विकास बहुत कुछ हो फिर भी व्यापार ( उपयोग ) अल्प ही होता है । ज्ञानगुण तो प्रत्येक जीवके परिपूर्ण है, विकारीदशामे उसकी ( ज्ञानगुणकी ) पूर्ण पर्याय प्रगट नही होती, इतना ही नही किन्तु पर्यायमें जितना विकास होता है उतना भी व्यापार एक साथ नही कर सकता । जबतक श्रात्माका आश्रय परकी ओर होता है तबतक उसकी ऐसी दशा होती है । इसलिये जीवको स्व और परका यथार्थ भेदविज्ञान करना चाहिये । भेदविज्ञान होनेपर वह अपने पुरुषार्थ को अपनी ओर लगाया ही करता है, और उससे क्रमशः रागको दूर करके बारहवे गुणस्थानमे सर्वथा राग दूर हो जानेपर वीतरागता प्रगट हो जाती है । तत्पयातु थोड़े ही समयमे पुरुषार्थ बढ़ने पर ज्ञान गुरग जितना परिपूर्ण है उतनी