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अध्याय १ सूत्र १६
७५ अवग्रहादि ज्ञान होता है। लब्ध्यक्षर ज्ञान श्रुतज्ञानका अत्यन्त सूक्ष्म भेद है। जब इस ज्ञानको माना जाता है तब अनिःसृत और अनुक्त पदार्थोके अवग्रहादि माननेमें कोई दोष नहीं है।
३-४-५ घ्राणेन्द्रिय-रसनेन्द्रिय, और स्पर्शनेन्द्रिय
घ्राण-रसना और स्पर्शन इन तीन इन्द्रियोंके द्वारा उपयुक्त बारह प्रकारके अवग्रहके भेद श्रोत्र और चक्षु इन्द्रियकी भांति समझ लेना चाहिये।
ईहा-अवाय-और धारणा चालू सूत्रका शीर्षक 'अवग्रहादिके विषयभूत पदार्थ है; उसमे अवग्रहादिके कहने पर, जैसे बारह भेद अवग्रहके कहे है उसीप्रकार ईहाअवाय और धारणा ज्ञानोंका भी विषय मानना चाहिये।
शंका-समाधान शंका-जो इन्द्रियाँ पदार्थको स्पर्श करके ज्ञान कराती है वे पदार्थोंके जितने भागों ( अवयवों) के साथ सम्बन्ध होता है उतने ही भागोंका ज्ञान करा सकती हैं। अधिक अवयवोंका नही। श्रोत्र, घ्राण, स्पर्शन और रसना,-यह चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं, इसलिये वे जितने अवयवोके साथ संबद्ध होती हैं उतने ही अवयवोका ज्ञान करा सकती हैं, अधिकका नही; तथापि अनिःसृत और अनुक्तमे ऐसा नही होता, क्योकि वहाँ पदार्थोका एक भाग देख लेने या सुन लेनेसे समस्त पदार्थका ज्ञान माना जाता है इसलिये श्रोत्रादि चार इन्द्रियोसे जो अनि.सूत और अनुक्त पदार्योका अवग्रह ईहादि माना गया है वह व्यर्थ है।
समाधान-यह शंका ठीक नही है । जैसे चीटी आदि जीवोंकी नाक तथा जिह्वाके साथ गुड़ आदि द्रव्योका सम्बन्ध नहीं होता फिर भी उसकी गंध और रसका ज्ञान उन्हे हो जाता है, क्योकि वहाँ अत्यन्त सूक्ष्म (जिसे हम नहीं देख सकते ) गुड आदिके अवयवोके साथ चीटी आदि जीवोंकी नाक तथा जिह्वा आदि इन्द्रियोका एक दूसरेके साथ स्वाभाविक संयोग संबन्ध रहता है; उस सम्बन्धमे दूसरे पदार्थकी अपेक्षा नही रहती,