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अध्याय ६ सूत्र २६-२७
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होता है इसके दूर किये बिना अन्य कोई भी परिग्रह दूर ही नहीं होता । यह सिद्धान्त बतानेके लिये इस शास्त्रके पहले ही सूत्रमे मोक्षमार्ग के रूप में जो श्रात्मा के तीन शुद्धभावोंकी एकताकी आवश्यकता बतलाई है उसमें भी प्रथम सम्यग्दर्शन ही बतलाया है । सम्यग्दर्शनके बिना ज्ञान या चारित्र भी सम्यक् नही होते । चारित्र के लिए जो 'सम्यक्' विशेषरण दिया जाता है वह अज्ञानपूर्वक आचरणकी निवृत्ति बतलाता है । पहले सम्यक् श्रद्धा ज्ञान होनेके बाद जो यथार्थ चारित्र होता है वही सम्यक् चारित्र है । इसलिये मिथ्यात्वको दूर किये बिना किसी प्रकारका तप या धर्म नहीं होता ॥२६॥
यह निर्जरातत्त्वका वर्णन चल रहा है । निर्जराका कारण तप है । तपके भेदोका वर्णन चालू है, उसमें श्राभ्यंतर तपके प्रारंभके पांच भेदोंका वर्णन पूर्ण हुआ । अब छठा भेद जो ध्यान है, उसका वर्णन करते हैं । सम्यकू ध्यानतपका लक्षण
उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानमान्तमुहूर्तात् ॥२७॥
अर्थ -[उत्तमसंहननस्य ] उत्तम संहननवालेके [श्रा अंतर्मुहूर्तात् ] अन्तर्मुहूर्त तक [ एकाग्र चितानिरोधो ध्यानम् ] एकाग्रतापूर्वक चिंताका निरोध सो ध्यान है ।
टीका
१ - उत्तमसंहनन ——— वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच और नाराच ये तीन उत्तमसंहनन हैं । इनमें मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीवके पहला वज्रर्षभनाराच संहनन होता है ।
एकाग्र — एकाग्र का अर्थ मुख्य, सहारा, अवलम्बन, श्राश्रय, प्रधान अथवा सन्मुख होता है । वृत्तिको अन्य क्रियासे हटाकर एक ही विषयमें रोकना सो एकाग्रचितानिरोध है और वही ध्यान है । जहाँ एकाग्रता नही वहाँ भावना है ।