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२६ ३४ में फुटनोट नं० ४ में कहा है कि-"जिनभगवानके उपदेशमें दो नयों द्वारा निरूपण होता है। वहीं, निश्चयनय द्वारा तो सत्यार्थ निरूपण किया जाता है और व्यवहारनय द्वारा अभूतार्थ उपचरित निरूपण किया जाता है।
__ प्रश्न-सत्यार्थ निरूपण ही करना चाहिये; अभूतार्थ उपचरित निरूपण किसलिये किया जाता है ?
उत्तर-जिसे सिहका यथार्थ स्वरूप सीधा समझमें नहीं आता हो, उसे सिंहके स्वरूपके उपचरित निरूपण द्वारा अर्थात् बिल्लीके स्वरूपके निरूपण द्वारा सिंह के यथार्थ स्वरूप को समझकी ओर ले जाता है; उसी प्रकार जिसे वस्तुका यथार्थ स्वरूप सीधा समझमें न पाता हो उसे वस्तुस्वरूपके उपचरित निरूपण द्वारा वस्तु स्वरूपको यथार्थ समझ की ओर ले जाते हैं । और लम्बे कथनके बदलेमें संक्षिप्त कथन करनेके लिये भी व्यवहारनय द्वारा उपचरित निरूपण किया जाता है। यहां इतना लक्ष्यमे रखने योग्य है कि जो पुरुष बिल्लीके निरूपणको ही सिंहका निरूपण मानकर बिल्लीको ही सिह समझ ले वह तो उपदेशके ही योग्य नहीं है, उसी प्रकार जो पुरुष उपचरित निरूपणको ही सत्यार्थ निरूपण मानकर वस्तुस्वरूपको मिथ्यारीतिसे समझ बैठे वह तो उपदेशके ही योग्य नही है।
. [ यहाँ एक उदाहरण लिया जाता है:
साध्य-साधन सम्बन्धी सत्यार्थ निरूपण इसप्रकार है कि 'छठवें गुणस्थानमे वर्तती हुई आंशिक शुद्धि सातवें गुणस्थान योग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है।' अब, छठवे गुणस्थानमे कैसी अथवा कितनी शुद्धि होती है, इस बातको भी साथकी साथ समझाना हो तो, विस्तारसे ऐसा निरूपण किया जाता है कि जिस शुद्धिके सद्भावमे, उसके साथ-साथ महाव्रतादिके शुभ विकल्प हठ रहित, सहजरूपसे प्रवर्तमान हों वह छठवे गुगास्थान योग्य शुद्धि सातवें गुणस्थान योग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिका साधन है।' ऐसे लम्वे कथनके वदलेमे, ऐसा कहा जाये कि 'छठवें