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मोक्षशास्त्र भेददृष्टिमें निर्विकल्पदशा नहीं होती इसलिये अभेददृष्टि कराई है कि जिससे निर्विकल्पदशा प्रगट हो । औपशमिकभाव भी एक प्रकारकी निर्विकल्प दशाहै।
(२) प्रश्न-इस सूत्रमें कथित पाँच भावोंमेंसे किस भावकी ओर के लक्षसे धर्मका प्रारम्भ और पूर्णता होती है ?
उचर-पारिणामिकभावोंके अतिरिक्त चारों भाव क्षणिक हैं,एक समय मात्रके है, और उनमें भी क्षायिकभाव तो वर्तमान नही है, श्रीपशमिकभाव भी होता है तो अल्प समय ही टिकता है, और औदयिकक्षायोपशमिकभाव भी समय २ पर बदलते रहते है, इसलिये उन भावों पर लक्ष किया जाय तो वहाँ एकाग्रता नही हो सकती और धर्म प्रगट नहीं हो सकता। त्रैकालिक पूर्ण स्वभावरूप पारिणामिकभावकी महिमाको जानकर उस ओर जीव अपना लक्ष करे तो धर्मका प्रारम्भ होता है और उस भावकी एकाग्रताके बलसे ही धर्मकी पूर्णता होती है ।
(३) प्रश्न-पंचास्तिकायमें कहा है कि
मोक्ष कुर्वन्ति मिश्रौपशमिकक्षायिकाभिधाः । बंधमौदयिका भावा निःक्रिया: पारिणामिकाः॥
[ गाथा ५६ जयसेनाचार्य कृत टीका ] अर्थ-मिश्र, औपशमिक और क्षायिक ये तीन भाव मोक्षकर्ता हैं। श्रीदयिकभाव वध करते है और पारिणामिकभाव बन्ध मोक्षकी क्रियासे रहित हैं।
प्रश्न-उपरोक्त कथनका क्या प्राशय है ?
उचर-इस श्लोकमे यह नहीं कहा है कि कौनसा भाव उपादेय अर्थात् आश्रय करने योग्य है किन्तु इसमें मोक्ष जो कि कर्मके अभावरूप निमित्तकी अपेक्षा रखता है वह भाव जव प्रगट होता है तव जीवका पोनसा भाव होता है यह बताया है अर्थात् मोक्ष जो कि, सापेक्ष पर्याय है उसका प्रगट होते समय तथा पूर्व सापेक्ष पर्याय कीनसी थी इसका स्वरूप बताया है। यह लोक बतलाताहैकिक्षायिकभावमोक्षको करता है अर्थात उस