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अध्याय २ सूत्र १
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भावका निमित्त पाकर आत्म प्रदेशसे द्रव्यकर्मका स्वयं अभाव होता है । मोक्ष इस अपेक्षासे क्षायिक पर्याय है और क्षायिकभाव जड़कर्मका प्रभाव सूचित करता है । क्षायिकभाव होनेसे पूर्व मोहके औपशमिक तथा क्षायोपशमिकभाव होना ही चाहिये और तत्पश्चात् क्षायिकभाव प्रगट होते हैं और क्षायिकभावके प्रगट होने पर ही कर्मोका स्वयं श्रभाव होता है तथा ऐसा निमित्त - नैमित्तिक संबंध बतानेके लिये यह कहा है कि 'यह तीनों भाव मोक्ष करते है' । इस श्लोकमें यह प्रतिपादन नही किया गया है कि - किस भावके आश्रयसे धर्म प्रगट होता है । ध्यान रहे कि पहिले चारों भाव स्व अपेक्षा से पारिणामिकभाव है । ( देखो जयधवल ग्रंथ पृष्ठ ३१६, धवला भाग ५ पृष्ठ १६७ )
४. प्रश्न- - ऊपर के श्लोक में कहा गया है कि -- प्रौदयिकभाव बंधका कारण है । यदि यह स्वीकार किया जाय तो गति, जाति, आदि नामकर्म संबंधी - औदयिक भाव भी बंधके कारण क्यों नही होगे ?
उत्तर --- श्लोकमे कहे गये औदयिकभावमें सर्व औदयिकभाव बंधके कारण हैं ऐसा नही समझना चाहिये, किन्तु यह समझना चाहिये कि मात्र मिथ्यात्व, संयम, कषाय और योग यह चार भाव बधके कारण है ( श्री धवला पुस्तक ७ पृष्ठ ६-१० )
५. प्रश्न - 'औदयिका भावाःबंधकारणम्' इसका क्या अर्थ है ?
उत्तर- - इसका यही अर्थ है कि यदि जीव मोहके उदयमें युक्त होता है तो बंध होता है । द्रव्य मोहका उदय होनेपर भी यदि जीव शुद्धात्मभावनाके बलसे भाव मोहरूप परिणमित न हो तो बंध नही होता । यदि जीवको कर्मोदयके कारण बंध होता हो तो संसारीके सर्वदा कर्मोदय विद्यमान हैं इसलिये उसे सर्वदा बंध होगा, कभी मोक्ष होगा ही नही । इसलिये यह समझना चाहिये कि कर्मका उदय बघका कारण नही है, किंतु जीवका भावमोहरूपसे परिणमन होना बंधका कारण है ।
दी प्रवचनसार पृष्ठ ५८-५६ जयसेनाचार्य कृत टीका )
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