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अध्याय ८ सूत्र १
६. मिथ्यादर्शनके दो भेद
(१) मिथ्यात्व के दो भेद है - प्रगृहीत मिथ्यात्व और गृहीत मिथ्यात्व । अगृहीत मिथ्यात्व अनादिकालीन है । जो ऐसी मान्यता है कि जीव परद्रव्यका कुछ कर सकता है या शुभ विकल्पसे आत्माको लाभ होता है सो यह अनादिका अगृहीत मिथ्यात्व है । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यायमे जन्म होनेके बाद परोपदेशके निमित्तसे जो प्रतत्त्व श्रद्धान करता है सो गृहीत मिथ्यात्व है अगृहीत मिथ्यात्वको निसर्गज मिथ्यात्व और गृहीत मिथ्यात्व को बाह्य प्राप्त मिथ्यात्व भी कहते है । जिसके गृहीत मिथ्यात्व हो उसके श्रगृहीत. मिथ्यात्व तो होता ही है ।
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अगृहीत मिथ्यात्व - शुभ विकल्पसे आत्माको लाभ होता है ऐसी अनादिसे चलो माई जो जीवकी मान्यता है सो मिथ्यात्व है; यह किसीके सिखानेसे नही हुआ इसलिये अगृहीत है ।
गृहीत मिथ्यात्व — खोटे देव - शास्त्र - गुरुकी जो श्रद्धा है सो गृहीत मिथ्यात्व है ।
(२) प्रश्न - जिस कुलमें जीव जन्मा हो उस कुलमें माने हुए देव, गुरु, शास्त्र सच्चे हों और यदि जीव लौकिकरूढ़ दृष्टिसे सच्चा मानता हो तो उसके गृहीत मिथ्यात्व दूर हुआ या नही ?
उत्तर———–नहीं, उसके भी गृहीतमिथ्यात्व है क्योंकि सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे शास्त्रका स्वरूप क्या है तथा कुदेव, कुगुरु और कुशास्त्रमें क्या दोष हैं इसका सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करके सभी पहलुप्रोसे उसके गुण ( Merits ) और दोष ( demerits ) यथार्थ निर्णय न किया हो वहाँ तक जीवके गृहीत मिथ्यात्व है और यह सर्वज्ञ वीतरागदेवका सच्चा अनुयायी नही है |
(३) प्रश्न- - इस जीवने पहले कई बार गृहीत मिथ्यात्व छोड़ा होगा या नही ?
उत्तर- -हीं, जीवने पहले अनन्तवार गृहीत मिथ्यात्व छोड़ा और
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