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मोक्षशास्त्र
( ८ ) मिथ्यादृष्टि जीव तो रागादि भावोंके द्वारा सर्व द्रव्यों को अन्य प्रकारसे परिणमाने की इच्छा करता है किन्तु ये सर्व द्रव्य जीवकी इच्छा के आधीन नही परिणमते । इसीलिये उसे आकुलता होती है । यदि जीवकी इच्छानुसार ही सब कार्य हों, अन्यथा न हो तो ही निराकुलता रहे, किंतु ऐसा तो हो ही नहीं सकता । क्योंकि किसी द्रव्यका परिणमन किसी द्रव्यके आधीन नहीं है । इसलिये सम्यक् अभिप्राय द्वारा स्व1 सन्मुख होनेसे ही जीवके रागादिभाव दूर होकर निराकुलता होती हैऐसा न मानकर मिथ्या अभिप्रायवश यों मानता है कि मैं स्वयं परद्रव्यका कर्ता, भोक्ता, दाता, हर्ता, आदि हूँ और परद्रव्यसे अपने को लाभ-हानि होती है ।
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( ९ ) मिथ्यादर्शनकी कुछ मान्यतायें
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१ - स्वपर एकत्वदर्शन, २- परकी कर्तृत्वबुद्धि, ३- पर्यायबुद्धि, ४व्यवहार-विमूढ़, ५ - प्रतत्त्व श्रद्धान, ६-स्व स्वरूपकी भ्राति, ७ - रागसे शुभभावसे आत्मलाभ हो ऐसी बुद्धि, ८- बहिरदृष्टि, 8- विपरीत रुचि, ० - जैसा वस्तु स्वरूप हो वैसा न मानना मोर जैसा न हो वैसा मानना, ११- अविद्या, १२ - परसे लाभ-हानि होती है ऐसी मान्यता, १३ – अनादि अनंत चैतन्यमात्र त्रिकाली आत्माको न मानना किंतु विकार जितनी ही आत्मा मानना, १४ - विपरीत अभिप्राय, १५ - परसमय, १६ - पर्यायमूढ, १७- ऐसी मान्यता कि जीव शरीरकी क्रिया कर सकता है, १५ - जीवको परद्रव्योकी व्यवस्था करनेवाला तथा उसका कर्ता, भोक्ता, दाता, हर्ता मानना, १६ - जीवको ही न मानना, २० - निमित्ताधीन दृष्टि, २१ - ऐसी मान्यता कि पराश्रयसे लाभ होता है, २२ - शरीराश्रित क्रियासे लाभ होता है ऐसी मान्यता, २३ - सर्वज्ञकी वाणी में जैसा आत्माका पूर्ण स्वरूप कहा है वैसे स्वरूपकी अश्रद्धा, २४ - व्यवहारनय सचमुच आदरणीय होने की मान्यता, २५ - शुभाशुभ भावका स्वामित्व, २६- शुभ विकल्पसे आत्माको लाभ होता है ऐसी मान्यता, २७ - ऐसी मान्यता कि व्यवहार रत्नत्रय करते करते निश्चयरत्नत्रय प्रगट होता है, २८ - शुभ अशुभ में सदृशता न मानना अर्थात् ऐसा मानना कि शुभ अच्छा है और अशुभ खराब है, २६ममत्वबुद्धि से मनुष्य और तियंचके प्रति करुणा होना ।
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