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मध्याय ७ सूत्र २-३
(५५९ - (२) सत्यादि चार व्रत सम्बन्धी
मुनिके असत्यं, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रहका त्याग है, परन्तु केवलज्ञानमें जाननेकी अपेक्षासे असत्यवचनयोग बारहवें गुणस्थान पर्यंत कहा है, अदत्त कर्म परमाणु आदि परद्रव्योंका ग्रहण तेरहवें गुणस्थान तक है, वेदका उदय नवमें गुणस्थान तक है, अंतरंग परिग्रह दसवें गुणस्थान तक है, तथा समवशरणादि बाह्य परिग्रह केवली भगवानके भी होता है, परन्तु वहां प्रमादपूर्वक पापरूप अभिप्राय नहीं है । लोकप्रवृत्तिमें जिन क्रियाओंसे ऐसा नाम प्राप्त करता है कि 'यह झूठ बोलता है, चोरी करता है, कुशील सेवन करता है तथा परिग्रह रखता है' वे क्रियाये उनके नहीं हैं इसीलिये उनके असत्यादिकका त्याग कहा गया है।
(३ ) मुनिके मूलगुणोंमे पांच इंद्रियोंके विषयोंका त्याग कहा है किन्तु इंद्रियोंका जानना तो नही मिटता; तथा यदि विषयोंमें राग-द्वेष सर्वथा दूर हुआ हो तो वहाँ यथाख्यातचारित्र हो जाय वह तो यहां हुआ नही; परन्तु स्थूलरूपसे विषय इच्छाका अभाव हुआ है तथा बाह्य विषय सामग्री मिलाने की प्रवृत्ति दूर हुई है इसीलिये उनके इन्द्रियके विषयोंका त्याग कहा है । ( मो० प्र०)
(४) त्रसहिंसाके त्याग सम्बन्धी यदि किसीने त्रसहिंसाका त्याग किया तो वहाँ उसे चरणानुयोग में अथवा लोकमे जिसे त्रसहिंसा कहते हैं उसका त्याग किया है। किन्तु केवलज्ञानके द्वारा जो त्रसजीव देखे जाते हैं उसकी हिंसाका त्याग नही बनता। यहीं जिस त्रसहिंसाका त्याग किया उसमे तो उस हिंसारूप मनका विकल्प न करना सो मनसे त्याग है, वचन न बोलना सो वचनसे त्याग है और शरीरसे न प्रवर्तना सो कायसे त्याग है ॥२॥ ( मोक्षमार्ग प्रकाशकसे)
___अब व्रतोंमें स्थिरताके कारण बतलाते हैं
तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पंच पंच ॥३॥
अर्थ-[ तत्स्थैर्याय ] उन व्रतोकी स्थिरताके लिये [भावनाः पंच पंच ] प्रत्येक व्रतकी पांच पांच भावनाएं हैं।