________________
५५८
मोक्षशास्त्र करना और कुछ बातोंमें हिंसा बताकर उसे छुड़ानेकी मुख्यता करना सो क्रम भंग उपदेश है ( देहलीसे प्र० मो० प्रकाशक अ० ५ पृष्ठ २३६)
५-एकदेश वीतराग और श्रावककी व्रतरूप दशाके निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, अर्थात् एकदेश वीतरागता होने पर श्रावकके व्रत होते ही हैं, इस तरह वीतरागताके और महाव्रतके भी निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, धर्मकी परीक्षा अन्तरंग वीतरागभावसे होती है, शुभभाव और बाह्य संयोगसे नहीं होती।
(मो० प्रकाशक ) ६. इस सूत्र में कहे हुये त्यागका स्वरूप यहाँ छद्मस्थके बुद्धिगोचर स्थूलत्वकी अपेक्षासे लोक प्रवृत्तिको मुख्यता सहित कथन किया है किन्तु केवल ज्ञानगोचर सूक्ष्मत्वकी दृष्टिसे नही कहा, क्योंकि इसका आचरण हो नहीं सकता। इसका उदाहरण:
(१) अहिंसा व्रत सम्बन्धी अणुव्रतीके त्रसहिंसाका त्याग कहा है; उसके स्त्रीसेवनादि कार्यो में तो त्रसहिंसा होती है, पुनश्च यह भी जानता है कि जिनवाणीमें यहाँ त्रसजीव कहे हैं परन्तु उसके त्रसजीव मारनेका अभिप्राय नहीं तथा लोकमें जिसका नाम त्रसघात है उसे वह नहीं करता, इस अपेक्षासे उसके त्रसहिंसा का त्याग है।
महाव्रतधारी मुनिके स्थावर हिंसाका भी त्याग कहा । अब मुनि पृथ्वी, जलादिकमें गमन करता है; वहाँ उसका भी सर्वथा अभाव नही है क्योकि त्रस जीवोंकी भी ऐसी सूक्ष्म अवगाहना है कि जो दृष्टिगोचर भी नही होती, तथा उसकी स्थिति भी पृथ्वी जलादिकमे है । पुनश्च मुनि जिनवाणीसे यह जानते हैं और किसी समय अवधिज्ञानादिके द्वारा भी जानते हैं; परन्तु मुनिके प्रमादसे स्थावर त्रसहिंसाका अभिप्राय नही होता, लोकमें पृथ्वी खोदना, अप्रासुक जलसे क्रिया करना इत्यादि प्रवृत्तिका नाम स्थावर हिंसा है और स्थूल त्रस जीवोको पीड़ा पहुँचानेका नाम असहिंसा है । उसे मुनि नही करते इसीलिये उनके हिसाका सर्वथा त्याग कहा जाता है।
( मो० प्र०)