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अध्याय ६ सूत्र ३६
टीका १-धर्मध्यानके चार भेद निम्नप्रकार है। (१) आज्ञाविचय-प्रागमकी प्रमाणतासे अर्थका विचार करना।
(२) अपायविचय-संसारी जीवोंके दुःखका और उसमेसे छूटने के उपायका विचार करना सो अपायविचय है।
(३) विपाकविचय-कर्मके फलका ( उदयका ) विचार करना।
(४) संस्थानविचय-लोकके श्राकारका विचार करना । इत्यादि विचारोंके समय स्वसन्मुखताके बलसे जितनी आत्म परिणामोकी शुद्धता हो, उसे धर्मध्यान कहते हैं।
२-उपरोक्त चार प्रकारके सम्बन्धमे विचार ।
(१) वीतराग आज्ञा विचार, साधकदशाका विचार, मैं वर्तमानमे आत्मशुद्धिकी कितनी भूमिका-(कक्षा) मे वर्तता हूँ उसीका स्वसन्मुखतापूर्वक विचार करना वह प्राज्ञाविचय धर्मध्यान है।
(२) बाधकताका विचार,-कितने अंशमें सरागता-कषायकरण विद्यमान हैं ? मेरी कमजोरी ही विघ्नरूप है, रागादि ही दुःखके कारण हैं ऐसे भावकर्मरूप बाधक भावोका विचार, अपायविचय है।
(३) द्रव्यकर्मके विपाकका विचार, जीवकी भूलरूप मलिनभावोंमें कर्मोंका निमित्तमात्ररूप सम्बन्धको जानकर स्वसन्मुखताके वलको संभालना, जड़कर्म किसीको लाभ हानि करनेवाला नही है, ऐसा विचार विपाकविचय है।
(४) संस्थानविचय-मेरे शुद्धात्मद्रव्यका प्रगट निरावरण सस्थान आकार कैसे पुरुषार्थसे प्रगट हो, शुद्धोपयोगकी पूर्णता सहित, स्वभाव व्यंजन पर्यायका स्वयं, स्थिर, शुद्ध आकार कब प्रगट होगा, ऐसा विचार करना सो संस्थानविचय है।
३-प्रश्न-छ8 गुणस्थानमें तो निर्विकल्पदशा नही होती तो वहीं उस धर्मध्यान कैसे संभव हो सकता है।