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अध्याय १ परिशिष्ट १
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मे घात करता है, और वे लोग ऐसा ही अर्थ करते है; किन्तु उनका यह अर्थ ठीक नही है । क्योकि वह कथन व्यवहारनयका है जो कि केवल निमित्तका ज्ञान करानेवाला है । उसका वास्तविक अर्थ यह है कि- जब जीव अपने पुरुषार्थके दोषसे अपनी पर्यायमे विकार करता है अर्थात् अपनी पर्यायका घात करता है तब उस घातमे अनुकूल निमित्तरूप जो द्रव्यकर्म 'प्रात्मप्रदेशोसे खिरनेके लिये तैयार हुआ है उसे 'उदय' कहनेका उपचार है अर्थात् उस कर्मपर विपाक उदयरूप निमित्तका आरोप होता है । और यदि जीव स्वयं अपने सत्यपुरुपार्थसे विकार नही करता - अपनी पर्यायका घात नही करता तो द्रव्यक्रर्मोके उसी समूहको 'निर्जरा' नाम दिया जाता है । इसप्रकार निमित्त - नैमित्तिक संबंधका ज्ञान करने मात्रके लिये उस व्यवहार कथनका अर्थ होता है । यदि अन्यप्रकारसे ( शब्दानुसार ही ) अर्थ किया जाय तो इस सम्बन्धके वदले कर्त्ता, कर्मका संबंध माननेके बराबर होता है, अर्थात् उपादान - निमित्त, निश्चयव्यवहार एकरूप हो जाता है, अथवा एक प्रोर जीवद्रव्य और दूसरी ओर अनन्त पुद्गल द्रव्य है, तो अनन्त द्रव्योने मिलकर जीवमे विकार किया है ऐसा उसका अर्थ हो जाता है, जो कि ऐसा नही हो सकता । यह निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बतानेके लिये कर्मके उदयने जीवपर असर करके हानि पहुँचाई, - उसे परिणामित किया इत्यादि प्रकारसे उपचारसे कहा जाता है, किन्तु उसका यदि उस शब्दके अनुसार ही अर्थ किया जाय तो वह मिथ्या है । [ देखो समयसार गाथा १२२ से १२५, १६०, तथा ३३७ से ३४४, ४१२ अमृतचन्द्राचार्य की टीका तथा समय सार कलश नं० २११-१२-१३- २१६ ]
इसप्रकार सम्यग्दर्शन प्रगट करनेके लिये पहिले स्वद्रव्य - परद्रव्य की भिन्नता निश्चित करनी चाहिए, और फिर क्या करना चाहिए सो
कहते हैं ।
( २ )
स्वद्रव्य और परद्रव्यकी भिन्नता निश्चित् करके, परद्रव्यो परसे लक्ष छोडकर स्वद्रव्यके विचारमे श्राना चाहिए वहाँ आत्मामे दो पहलू हैं उन्हे जानना चाहिए । एक पहलू- आत्माका प्रतिसमय त्रिकाल प्रखंड परि