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मोक्षशास्त्र अर्थ-[मोहक्षयात्] मोहका क्षय होनेसे ( अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त क्षोणकषाय नामक गुणस्थान प्राप्त करनेके वाद ) [ ज्ञानदर्शनावरणांतराय क्षयात् च ] और ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अन्तराय इन तीन कर्मोका एक साथ क्षय होनेसे [ केवलम् ] केवलज्ञान उत्पन्न होता है।
टीका १-प्रत्येक जीव द्रव्य एक पूर्ण अखण्ड है अतः उसका ज्ञान सामर्थ्य संपूर्ण है। संपूर्ण वीतराग होनेपर संपूर्ण सर्वज्ञता प्रगट होती है । जब जीव सपूर्ण वीतराग होता है तव कर्मके साथ ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंध होता है कि-मोहकर्म जीवके प्रदेशमे संयोगरूपसे रहता ही नहीं, उसे मोहकर्मका क्षय हुआ कहा जाता है । जीवकी सम्पूर्ण वीतरागता प्रगट होनेके बाद अल्पकालमे तत्काल ही संपूर्णज्ञान प्रगट होता है उसे केवलज्ञान कहते है, क्योकि वह ज्ञान शुद्ध, अखण्ड, राग रहित है । इस दशामें जीवको 'केवली भगवान' कहते हैं। भगवान समस्त पदार्थों को जानते हैं इसीलिये वे केवली नहीं कहलाते, परन्तु 'केवल' अर्थात् शुद्ध आत्माको जानते अनुभवते है अतः वे 'केवली' कहलाते हैं । भगवान एकसाथ परिणमनेवाले समस्त चैतन्य-विशेषवाले केवलज्ञानके द्वारा अनादि निधन, निष्कारण असाधारण स्वसंवेद्यमान् चैतन्यसामान्य जिसकी महिमा है तथा चेतक स्वभावके द्वारा एकरूप होनेसे जो केवल ( अकेला, शुद्ध, अखण्ड ) है ऐसे श्रात्माको आत्मासे आत्मामे अनुभव करनेके कारण केवली है।
( देखो श्री प्रवचनसार गाथा ३३ ) यह व्यवहार कथन है कि भगवान परको जानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि व्यवहारसे केवलज्ञान लोकालोकको युगपत् जानता है, क्योंकि स्व-पर प्रकाशक निज शक्तिके कारण भगवान सम्पूर्ण ज्ञानरूपसे परिणमते हैं अतः कोई भी द्रव्य, गुण या पर्याय उनके ज्ञानके बाहर नही है । निश्चयसे तो केवलज्ञान अपने शुद्ध स्वभावको ही अखण्डरूपसे जानता है।
२-केवलज्ञान स्वरूपसे उत्पन्न हुआ है, स्वतंत्र है तथा क्रम रहित है । यह ज्ञान जब प्रगट हो तब ज्ञानावरण कर्मका सदाके लिये क्षय होता