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अध्याय ५ उपसंहारा
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अर्थ — जहाँ निजशक्तिरूप उपादान तैयार हो वहाँ पर निमित्त होते ही हैं, ऐसी भेदज्ञान प्रमाणकी विधि ( - व्यवस्था ) है, यह सिद्धांत कोई विरला ही समझता है ॥ ४ ॥
भावार्थ - जहाँ उपादानकी योग्यता हो वहां नियमसे निमित्त होता है, निमित्तकी राह देखना पड़े ऐसा नही है; और निमित्तको हम जुटा सकते ऐसा भी नही है । निमित्तकी राह देखनी पड़ती है या उसे मैं ला सकता हूँ ऐसी मान्यता- परपदार्थ में श्रभेद बुद्धि अर्थात् अज्ञान सूचक है । निमित्त और उपादान दोनों असहायरूप है यह तो मर्यादा है ||४॥ उपादान बल जहँ तहीं, नहीं निमित्तको दाव;
एक चक्रसों रथ चले, रविको यहै स्वभाव ॥ ५ ॥
अर्थ - जहाँ देखो वहाँ सदा उपादानका ही बल है निमित्त होते हैं परन्तु निमित्तका कुछ भी दाव (-बल ) नही है जैसे एक चक्रसे सूर्यका रथ चलता है इस प्रकार प्रत्येक कार्यं उपादानकी योग्यता ( सामर्थ्य ) से ही होता है ॥ ५ ॥
भावार्थ — कोई ऐसा समझता है कि निमित्त उपादानके ऊपय सचमुच असर करते हैं, प्रभाव पड़ते हैं, सहाय मदद करते हैं, आधार देते हैं तो वे अभिप्राय गलत हैं ऐसा यहाँ दोहा ४-५-६-७ में स्पष्टतया कहा है । अपने हितका उपाय समभनेके लिये यह बात बड़ी प्रयोजनभूत है |
शास्त्रमें जहां परद्रव्यको ( निमित्तको ) सहायक, साधन, कारण, कारक आदि कहे हो तो वह "व्यवहार नयको मुख्यता लिये व्याख्यान है, ara ऐसें है नाहीं निमिचादि अपेक्षा उपचार किया है ऐसा जानना ।" ( देहली से प्र० मोक्षमार्ग प्र० पृ० ३६९ )
दूसरे प्रश्नका समाधान -
सधै वस्तु असहाय जहँ तहँ निमित्त है कौन;
ज्यो जहाज परवाह में, तिरै सहज विन पौन ॥ ६ ॥
अर्थ — प्रत्येक वस्तु स्वतंत्रतासे अपनी अवस्थाको ( - कार्यको ) प्राप्त करती है वहाँ निमित्त कौन ? जैसे जहाज प्रवाह में सहज ही पवन बिना ही तैरता है |
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