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अध्याय ५ सूत्र. १५-१६
४०७ अर्ष-[ जीवानाम् ] जीवोंका अवगाह असंख्येय भागादिषुः] लोकाकाशके असंख्यात भागसे लेकर संपूर्ण लोक क्षेत्रमें, है ।
टीका जीव अपनी छोटीसे छोटी अवगाहनरूप अवस्थामें भी असंख्यात प्रदेश रोकता है । जीवोंके सूक्ष्म अथवा बादर शरीर होते हैं । सूक्ष्म शरीरा वाले एक निगोद जीवके अवगाहन योग्य क्षेत्रमें साधारण शरीरवाला (-निगोद ) जीव अनंतानत रहते हैं तो भी परस्पर बावा नही पाते । (-सर्वार्थसिद्धि टीका) जीवोका जघन्य अवगाहन घनांगुलके असंख्याता भाग कहा है । (धवला पृ. ४ पृ. २२ सर्वा. अ. ८ सूत्र २४ की टीका-) सूक्ष्म जीव तो समस्त लोकमें हैं । लोकाकाशका कोई प्रदेश ऐसा नहीं है जिसमें जीव न हों।
जीवका अवगाहन लोकके असंख्यात भागमें कैसे है ?
प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥१६॥
अर्थ:-[ प्रदीपवत् ] दीपकके प्रकाशकी भांति [प्रदेशसंहारविसर्पान्यो ] प्रदेशोके संकोच और विस्तारके द्वारा जीव लोकाकाशके असंख्यातादिक भागोमे रहता है।
टीका जसे एक बड़े मकानमें दीपक रखनेसे उसका प्रकाश-समस्त मकान मे फैल जाता है और उसी दीपकको एक छोटे घडे मे रखनेसे उसका प्रकाश उसीमें मर्यादित हो जाता है। उसीप्रकार जीव भी छोटे या बड़े जैसे शरीरको प्राप्त होता है उसमे उतना ही विस्तृन या संकुचित होकर-रह जाता है, परन्तु केवलोके प्रदेश समुद्घात-अवस्थामे सम्पूर्ण लोकाकाशमे व्याप्त हो जाते है और सिद्ध अवस्थामें अतिम शरीरसे कुछ न्यून रहता है।
(२) बेड़ेसे बडा शरीर स्वयंभूरमण समुद्रके महामत्स्यका है जो १००० योजन लम्बा है । छोटेसे छोटा शरीर (अंगुलके असंख्यातवें भाग