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परिशिष्ट १ क्रिया स्वरूपकी अभेदता
ये स्वभावाद् दृशिज्ञप्तिचर्यारूपक्रियात्मकाः । ... . .दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १५ ॥
अर्थ-जो देखनेरूप, जाननेरूप तथा चारित्ररूप क्रियाएँ हैं वह दर्शन-ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रय है, परन्तु ये क्रियाएँ आत्मासे कोई भिन्न पदार्थ नहीं तन्मय प्रात्मा ही है।
गुणस्वरूपका अभेदत्वदर्शनशानचारित्रगुणानां य इहाश्रयः ।
दर्शनशानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १६ ॥ अर्थ-जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुणोंका आश्रय है वह दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रय है । प्रात्मासे भिन्न दर्शनादि गुण कोई पदार्थ नही परन्तु प्रात्मा ही तन्मय हुमा मानना चाहिये अथवा आत्मा तन्मय ही है।
पर्यायोंके स्वरूपका अभेदत्व दर्शनज्ञानचारित्रपर्यायाणां य आश्रयः ।
दशेनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव स स्मृतः॥ १७॥ अर्थ-जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय पर्यायोंका आश्रय है वह दर्शनज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय है। रत्नत्रय आत्मासे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है, प्रात्मा ही तन्मय होकर रहता है अथवा तन्मय ही आत्मा है। मात्मा उनसे भिन्न कोई प्रथक् पदार्थ नही।
प्रदेशस्वरूपका अभेदपन दर्शनज्ञानचारित्रदेशा ये.प्ररूपिताः ।
दर्शनज्ञानचारित्रमयस्यात्मन एव ते ॥१८॥ अर्थ-दर्शन-ज्ञान-चारित्रके जो प्रदेश बताये गये हैं वे आत्माके