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मोक्षशास्त्र प्रदेशोंसे कही अलग नहीं है । दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप आत्माका ही वह प्रदेश है । अथवा दर्शन-ज्ञान-चारित्रके प्रदेशरूप ही आत्मा है और यही रत्नत्रय है । जिस प्रकार आत्माके प्रदेश और रत्नत्रयके प्रदेश भिन्न-भिन्न नहीं हैं उसीप्रकारं परस्पर दर्शनादि तीनोंके प्रदेश भी भिन्न नहीं हैं, अतएव आत्मा और रत्नत्रय भिन्न नहीं किंतु आत्मा तन्मय ही है।
___ अगुरुलघुस्वरूपका अभेदपन दर्शनज्ञानचारित्रागुरुलध्वाह्वया गुणाः ।
दर्शनशानचारित्रत्रयस्यात्मन एव ते ॥ १९ ॥ अर्थ-अगुरुलघु नामक गुण है अतः वस्तुमें जितने गुण हैं वे सीमासे अधिक अपनी हानि-वृद्धि नहीं करते; यही सभी द्रव्यों में अगुरुलघुगुणका प्रयोजन है । इस गुणके निमित्त से समस्त गुणोंमें जो सीमा का उल्लंघन नही होता उसे भी अगुरुलघु कहते हैं। इसीलिये यहाँ अगुरु लघुको दर्शनादिकका विशेषरण कहना चाहिये ।।
अर्थात-अगुरुलघुरूप प्राप्त होनेवाले जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं वे आत्मासे प्रथक् नहीं है और परस्परमे भी वे प्रथक् प्रथा नहीं हैं; दर्शनज्ञान-चारित्ररूप जो रत्नत्रय है, उसका वह ( अगुरुलधु) स्वरूप है और वह तन्मय ही है इस तरह अगुरुलघुरूप रत्नत्रयमय आत्मा है, किंतु आत्मा उससे प्रथक् पदार्थ नही । क्योंकि आत्माका अगुरुलघु-स्वभाव है और आत्मा रत्नत्रय स्वरूप है इसीलिये वह सर्व आत्मासे अभिन्न है।
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूपकी अभेदता । दर्शनज्ञानचारित्र ध्रौव्योत्पाद व्ययास्तु ये। .
दर्शनज्ञानचारित्रमयस्यात्मन एव ते ॥ २० ॥ अर्थ-दर्शन-ज्ञान-चारित्र में जो उत्पाद व्यय-ध्रौव्य है वह सब मात्माका ही है। क्योंकि जो दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय है वह आत्मासे अलग नहीं है। दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय हो आत्मा है अथवा दर्शन-ज्ञान-चारित्र आत्मामय ही है, इसीलिये रत्नत्रयके जो उत्पाद-व्यय