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अध्याय १ सूत्र ३३
११५ लौकिक जन-अन्यमति कई कहै हैं जो पूजा आदिक शुभ क्रियामें और व्रतक्रिया सहित है सो जिनधर्म है सो ऐसे नहीं है।"
यहाँ बौद्ध, वेदान्त, नैयायिक इत्यादिमें जो एकान्त मान्यता है और जिनमतमै रहनेवाले जीवमें भी जिसप्रकारकी विपरीत-एकांत-मान्यता चल रही हो वह भूल बतलाकर उस भूल-रहित सच्चा अभिप्राय बतलाना सो मतार्थ है।
(४) आगमार्थ-जो सत् शास्त्रमें (सिद्धांतमें) कहा हो उसके साथ अर्थको मिलाना सो आगमार्थ है। सिद्धांतमें जो अर्थ प्रसिद्ध हो वह प्रागमार्थ है।
(५) भावार्थ-तात्पर्य अर्थात् इस कथनका अन्तिम अभिप्रायसार क्या है ? कि-परमात्मरूप वीतरागी आत्मद्रव्य ही उपादेय है, इसके अतिरिक्त कोई निमित्त या किसी प्रकारका राग-विकल्प उपादेय नही है। यह सब तो मात्र जाननेयोग्य है; एक परमशुद्ध स्वभाव ही आदरणीय है । भावनमस्काररूप पर्याय भी निश्चयसे आदरणीय नहीं है, इसप्रकार परम शुद्धात्म स्वभावको ही उपादेयरूपसे अंगीकार करना सो भावार्थ है।
यह पांच प्रकारसे शास्त्रोंका अर्थ करनेकी वात समयसार, पंचास्तिकाय, वृ० द्रव्यसंग्रह, परमात्मप्रकाशकी टीकामें है।
यदि किसी शास्त्रमें वह न कही हो तो भी प्रत्येक शास्त्रके प्रत्येक कथनमें इन पांच प्रकारसे अर्थ करके उसका भाव समझना चाहिये।
नयका स्वरूप संक्षेपमें निम्न प्रकार है:
सम्यग्नय सम्यग् श्रुतज्ञानका अवयव है और इससे वह परमार्थसे ज्ञानका ( उपयोगात्मक ) अंश है, और उसका शब्दरूप कथनको मात्र उपचारसे नय कहा है।
इस विषयमें श्री धवला टीकामे कहा है कि:शंका-नय किसे कहते हैं ? समाधान-ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहते हैं।